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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] जिनदत्तसूरि [ २८५ अर्थात् जिनेश्वर भगवान् की पूजा में जिन - प्रवचनों का प्रलोप करने वाला व्यक्ति महापापी और जिन प्रवचनों का प्रलोप करने वाला उपघाती है । उसे ( श्री जिनदत्तसूरि को) कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य, वादी श्री देवसूरि आदि ने अनेक भांति समझाया कि स्त्रियों द्वारा जिनेन्द्र प्रभु की पूजा किये जाने का निषेध न करें किन्तु जिनदत्त ने अपने कदाग्रह को नहीं छोड़ा और संघ से भयभीत हो ऊंट पर आरूढ़ हो पाटण से जालोर की ओर पलायन कर गया । जिनदत्तसूरि का यह पलायन स्त्रियों द्वारा जिनेन्द्र भगवान की ( मूर्ति की ) पूजा करने के निषेध के प्रश्न को लेकर हुआ ।" साम्प्रदायिक पूर्वाभिनिवेश, गच्छव्यामोह, धार्मिक सहिष्णुता और अहं जन्य पारस्परिक विद्वेष के उस युग में अपने से भिन्न गच्छ अथवा सम्प्रदायों के बड़े से बड़े प्रभावक प्राचार्यों को भी लोकदृष्टि में नीचे गिराने के उद्देश्य से किस-किस प्रकार के कुत्सित प्रयास विभिन्न गच्छों के विद्वानों द्वारा व्यापक रूप किये गये, इस सम्बन्ध में इतिहास के प्रति अभिरुचि रखने वाले जिज्ञासु पाठकों को तत्कालीन स्थिति की थोड़ी सी झलक दिखाने के लिये ये कुछ उदाहरण यहां प्रस्तुत किये गये हैं । यहां महान् प्रभावक एवं अद्यावधि सर्वाधिक लोकप्रिय प्राचार्य जिनदत्तसूरि के जीवन परिचय का प्रसंग होने के कारण केवल उनके विरुद्ध किये गये कुत्सित प्रचार के उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं । वस्तुस्थिति यह है कि उस युग में किसी भी गच्छ के महान् प्रभावक प्राचार्य को अथवा अभ्युदय की ओर अग्रसर होने वाले किसी भी क्रियोद्धारक गच्छ को लोकदृष्टि में नीचा दिखाने के प्रयास में किसी भी प्रकार की कोर कसर नहीं रखी गई । खरतरगच्छ के अन्य प्राचार्यों तथा अन्यान्य गच्छों एवं उनके बड़े-बड़े प्रभावक आचार्यों को लोक दृष्टि में गिराने के अभिप्राय से उस पारस्परिक विद्वेष के युग में विभिन्न गच्छों के विद्वान् लेखकों द्वारा जो प्रचारप्रसार किया गया, वह जैन संघ के लिये घातक सिद्ध हुआ । जिनशासन की अभ्यु - न के लिये जिस सामूहिक सम्मिलित शक्ति का उपयोग किया जाना चाहिये था, उस शक्ति को परस्पर एक-दूसरे की जड़ें खोखली करने की दिशा में व्यर्थ ही व्यय किया जाता रहा । उस सब पर विभिन्न गच्छों और विभिन्न गच्छों के प्रभावक आचार्यों के परिचय में यथा प्रसंग सार रूप में पूर्ण प्रकाश डालने का प्रयास किया जायेगा । उस पारस्परिक विद्वेष एवं वैमनस्य के युग में युगादि से महान् रहते प्राये जैन संघ को जो अपूरणीय क्षति हुई, उसका अनुमान केवल एक इसी तथ्य से प्रांका सकता है कि प्राचीन काल में जो जैन संघ न केवल "ग्रा सिन्धोसिन्धु पर्यन्तं " भारतवर्ष में ही नहीं अपितु प्रड़ौस पड़ौस के द्वीप समूहों में भी फैला हुआ था एवं सभी धर्म संघों में मूर्धन्य माना जाता रहा था, वह पारस्परिक वैमनस्य - विद्वेष के कारण विपन्न से विपन्नतर अवस्था को प्राप्त होता हुआ भारत के इने गिने प्रदेशों में सिमटता - सिकुड़ता एक क्षीण, अशक्त, अल्पसंख्यक संघ के रूप में अवशिष्ट रह गया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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