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करते तथा बुरा-भला कहते । जिनदत्त के इस प्रकार के रूक्ष एवं कठोर स्वभाव को देख कर लोगों ने यह कहना प्रारम्भ कर दिया कि - "अरे ! जिनदत्तसूरि की प्रकृति बड़ी ही खरतर है ।" इस प्रकार जिनदत्तसूरि के गच्छ की खरतरगच्छ के नाम से लोक में प्रसिद्धि हो गयी । १
उपाध्याय धर्मसागर ने खरतरगच्छ की कटुतर आलोचना करते हुए पुनः लिखा है :
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“जितने भी कुपाक्षिक हैं, उनमें खरतरगच्छानुयायी अपने जन्म जात स्वभाव के कारण सर्वाधिक निश्शूल हैं, सर्वाधिक निर्लज्ज अथवा निकृष्ट हैं । खरतरगच्छानुयायियों के भाषण और भक्षण दोनों में ही दोष है । वे आगम विरुद्ध प्ररूपरणा करके उसकी पुष्टि हेतु अपनी झूठी सम्मति देते और श्रावकों द्वारा भी त्याज्य पर्युषित ( वासी) द्विदल पोलिका आदि का भक्षण करते हैं ।"
जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
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खरतर शब्द का अर्थ अभिव्यक्त करते हुए उ० धर्मसागर ने लिखा है "अधोभावादि शब्दै व्याकरण -- निष्पन्नमेव गृह्यते तर्ह्यतिशयेन खरः खरतर : इति व्युत्पत्त्या महान् गर्दभः उग्रतरो वा भण्यते । ।" अर्थात् खर का अर्थ हुआ गा और खरतर का अर्थ होता है बड़ा गधा अथवा प्रतीव उग्र । पर ऐसा प्रतीत होता है कि स्वर्णगिरि (जालोर) में लोगों के मुख से अपने लिये प्रयुक्त 'प्रष्ट्रिक' विशेषरण को सुनकर जिनदत्त क्रोधाविष्ट हो लोगों की प्राक्रोषपूर्ण कटु एवं कठोर शब्दों में भर्त्सना करगे लगे और लोगों ने उन्हें – ये, बड़े उग्र प्रर्थात् खरतर हैंयह कहना प्रारम्भ कर दिया | 3
उपाध्याय धर्मसागर ने जिनदत्तसूरि और खरतरगच्छ को “ग्रौष्ट्रिक" की उपाधि से संबोधित किये जाने के विषय में और भी स्पष्ट शब्दों में लिखा है : -
"जिनपूजा विघ्नकरो महापातकी, प्रवचनोपघाती च कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य प्रभृतिभिरनेकैर्बहुश्रुतैरनेकशो निवारितोऽपि स्वाभिनिवेशमत्यजन् संघभीत्या उष्ट्रमारुह्य जावालिपुरं गतः यदुक्तम् :
१.
२.
"स्त्रीजिन पूजा व्यवस्थापका प्रस्माकीना वादि - श्री देवसूरि श्री हेमचन्द्राचार्य प्रभृतयो भूयांसो येषां भयेनोष्ट्रमारुह्य पलायनं जिनदत्तस्य स्त्रीजिनपूजा निषेध हेतुकं सम्पन्नम् ।"
यत्कृतस्ततः ।
जिनदत्त क्रियाकोशच्छेदोऽयं संघोक्तिभीतिस्तेऽ-भूदारूह्योष्ट्रं पलायनम् ।।
वही
वही
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प्रवचन परीक्षा, भाग १, विश्राम ४, गाथा ३७, ३८ पृष्ठ २६७-२६६
पृष्ठ संख्या ३१६ पृष्ठ संख्या २=६
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