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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] जिनदत्तसूरि [ २८३ का पारावार न रहा । एक रजस्वला महिला के इस अपराध का दण्ड अथवा प्रायश्चित्त सम्पूर्ण नारी समाज को दिया। जिनदत्त ने एक नियम बनाकर समग्र स्त्री जाति के लिये जिनेन्द्र की पूजा का निषेध करते हुए जिनमन्दिरों में इस प्रकार की आज्ञा प्रसारित कर दी कि कोई भी स्त्री-जिनेश्वर भगवान् की मूर्ति की और मुख्यतः मूल प्रतिमा की पूजा नहीं कर सकती। __ संघ के समक्ष जब यह समस्त विवरण प्रस्तुत किया गया तो संघ ने विचारविनिमय के पश्चात् निर्णय किया--"प्रवचनों का उपघात-उड्डाह करने वाले इस प्रकार के उपदेश से जिनदत्त ने इस प्रकार की प्रायश्चित विधि, इस प्रकार के कल्पित दण्ड का विधान कहां से खोज निकाला है। प्रात:काल जिनदत्त को संघ के समक्ष उपस्थित किया जाय और उससे इस सम्बन्ध में पूछा जाय । समझाने पर भी यदि वह अपना कदाग्रह नहीं छोड़े तो उसे समुचित शिक्षा दी जाय ।" संघ द्वारा किये गये इस प्रकार के निर्णय की सूचना जब जिनदत्त को मिली तो वह बड़ा भयभीत हुा । संघ से त्राण का और कोई उपाय न देख जिनदत्तसूरि रात्रि में ही द्रुत गति वाले एक उष्ट्र पर आरूढ़ हो तत्काल पाटण से जालोर की अोर प्रस्थित हुए। सूर्योदय होते-होते जिनदत्तसूरि जालोर पहुंच गये। नगर के बाहर ही ऊंट पर से उतरकर जिनदत्तसूरि ने उष्ट्र वाहक को वहीं से पाटण की अोर विदा किया और वे उपाश्रय में पहुंचे। उन्हें देख श्रावक-श्राविका वर्ग को बड़ा आश्चर्य हुया कि पद विहारी जैनाचार्य सूर्योदय होते-होते ही कहां से किस प्रकार जालोर पहुंच गये ? अपने इस कौतुहल को शान्त करने हेतु श्राद्धवर्ग ने जिनदत्तसूरि से पूछा-पाटण से आप कब प्रस्थित हुए, रात्रि में कहां ठहरे और सूर्य की प्रथम किरण के साथ ही आपने नगर में प्रवेश किस प्रकार किया ? जिनदत्तसूरि ने श्रावकवर्ग की जिज्ञासा को शान्त करने का प्रयास करते हुए उत्तर दिया-"पाटण में वेशमात्र से साधु कहलाने वाले लोगों की ओर से भयंकर उपद्रव उपस्थित किये जाने की आशंका उत्पन्न हो गई थी अतः मैं रात्रि में ही औष्ट्रिकी विद्या की साधना कर उसकी सहायता से यहां सूर्योदय होने तक पहुंचा हूं।" यह सुनकर लोग बड़े चमत्कृत हुए। कर्णपरम्परा से इस घटना का समाचार दूर-दूर तक फैल गया और लोक में जिनदत्तसूरि की पौष्ट्रिक और उनके गच्छ की औष्ट्रिक गच्छ के नाम से प्रसिद्धि हो गई।' जन-जन के मुख से स्वयं अपने लिये और अपने गच्छ के लिये औष्ट्रिक विशेषण को सुनकर जिनदत्त क्रोधातिरेक से तमतमा उठते, लोगों की भर्त्सना १. प्रवचन परीक्षा, भाग १, विश्राम ४, गाथा ३५, ३६, पृष्ठ २६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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