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________________ २८२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ असम्मानजनक कटु शब्दों में आलोचना की, इसका एक उदाहरण यहां प्रस्तुत किया जा रहा है : __ तपागच्छ के ५७वे पट्टधर विजयदानसूरि के शिष्य उपाध्याय धर्मसागर ने, जोकि तपागच्छ के ५८३ पट्टधर जिनशासन प्रभावक श्री हीरविजयसूरि का सहपाठी था,' अपने ग्रन्थ प्रवचन परीक्षा भाग १ में दादा श्री जिनदत्तसूरि की असम्मानजनक भाषा में कटुतर आलोचना करते हुए लिखा है : __ “यद्यपि जिनवल्लभ से विधिसंघ प्रकट हुआ तथापि उस विधिसंघ में साध्वियों के नितान्त अभाव के कारण वह संघ पंगु अर्थात् चतुर्विध संघ न रह कर साधु-श्रावक-श्राविका रूपी विविध संघ ही था। कुछ समय पश्चात् जिनदत्त ने महिलाओं को साध्वी वेष प्रदान कर उस त्रिविध विधिसंघ को चतुर्विध संघ का रूप प्रदान किया । उस समय से लेकर आज तक वह विधिसंघ अविच्छिन्न अवस्था में विद्यमान है । इस कारण सर्वांगपूर्ण चतुर्विध विधिसंघ का संस्थापक अथवा प्रथम प्राचार्य, प्राद्य प्राचार्य जिनदत्त ही है। इस प्रकार विधिसंघ के प्रथम दो उत्सूत्र प्ररूपक मूल प्राचार्य जिनवल्लभसूरि और जिनदत्त थे ।२ उस विधिसंघ के चामुण्डिक, पौष्ट्रिक और खरतर ये तीन नाम जिनदत्त से ही प्रचलित हुए। वि. सं. १२०१ में जिनदत्त ने अपने मत की वृद्धि के उद्देश्य से मिथ्यादृष्टि देवता चामुण्डा (अपरनाम चण्डिका) की अाराधना की। जिनदत्त ने चित्तौड़ नगरस्थ चामुण्डा के मन्दिर में चातुर्मासावास करते हुए चामुण्डा की आराधना की। अतः लोगों ने जिनदत्त के विधिसंघ का प्रमुख प्रथम नाम चामुण्डा गच्छ रखा । _कालान्तर में अहिल्लपुर पाटण नगर में रहते हुए जिनदत्त ने जिनेश्वर प्रभु के मन्दिर (निज मन्दिर) में रुधिर के छींटे देखे । जब जिनदत्त को ज्ञात हुया कि निज मन्दिर में पड़े वे रुधिर के धब्बे जिनेन्द्र भगवान की पूजा के लिये आई हुई किसी रजस्वला महिला के मासिक रक्तस्राव के छींटे हैं, तो उनके क्रोध १. तथा तच्छिष्यो विजयदानसूरिः क्रियोद्धारसहायकृत् । तस्य शिष्यः पूर्व खरतरगच्छः पश्चात्तपोगच्छाचरणः, देवगिरौ श्रीहीरविजयसूरीणां सहाध्यायी, गिर्वाणभाषाजल्पदक्ष:, तिब्रबुद्धिः, प्रखरवादी, चतुर्विधवादनिष्णातः, श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ति (वि. सं. १६३६), कल्प किरणावली (वि. सं. १६२८) कुमतिकुद्दाल:-प्रवचनपरीक्षा, तपागच्छ पट्टावलीमूत्र तद्वृत्ति-नय चक्र......""ौष्ट्रिकोत्सूत्रदीपिका (वि. सं. १६१७) पर्युपणाशतक प्रकरण-तद्वृति-गुरुतत्वदीपिका (श्लो. १०००) प्रमुख ग्रन्थानां प्रणेता धर्मसागरः । -पट्टावली समुच्चय, भाग १, पृष्ठ ७३ (टिप्पण)-सं. मुनिदर्शन विजयः श्री चारित्र स्मारक ग्रन्थमाला, बीरमग्राम (गुजरात)। २. प्रवचन परीक्षा, भाग – १. विश्राम ४, पृष्ठ २६६, गाथा ३२ ३. -वही- गाथा सं० ३३, ३४, पृष्ठ २६६, २६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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