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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] जिनदत्तसूरि [ २८१ के व्यामोह के वशीभूत हो प्रायः सभी गच्छों के साधुओं ने केवल अपने-अपने गच्छ की मान्यताओं को ही सर्वश्रेष्ठ एवं आगमानुसारी तथा अन्य गच्छों की मान्यताओं को उनकी कपोल-कल्पित एवं सर्वज्ञ प्रणीत आगमों से विरुद्ध सिद्ध करने के प्रयास में ही अपने मुनि जीवन का एक बहुत बड़ा भाग व्यर्थ ही व्यतीत कर दिया हो । इससे सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उस साम्प्रदायिक विद्वेष के युग में साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूपी चतुर्विध जैन संघ परस्पर एक-दूसरे गच्छ को अनागमिक, धर्म के वास्तविक स्वरूप के विपरीत पथ का पथिक सिद्ध करने वाली इन चर्चाओं का केन्द्र बन चुका था। चतुर्विध संध के प्रत्येक सदस्य को इस प्रकार की चर्चाओं में कुशल एवं वाक्पटु बनाने के लिये इस प्रकार के खण्डन-मण्डनात्मक ग्रन्थों का निर्माण विभिन्न गच्छों के विद्वान् मुनियों ने किया। इस सब का घातक परिणाम यह हुआ कि विश्वकल्याणकारी जगत्गुरु जिनेश्वर भगवान् महावीर का धर्मसंघ ऐसे विभिन्न गच्छों की बाड़ेबन्दी में विभक्त हो गया, जिन गच्छों में प्रत्येक गच्छ अपने से भिन्न गच्छ को अपना प्रतिद्वन्दी, प्रतिस्पर्धी अथवा शत्रु तक समझने लगा। इस प्रकार की पारस्परिक शत्रुतापूर्ण प्रतिस्पर्धा का ही प्रतिफल था कि गच्छ विशेष के प्राचार्य अथवा विद्वान् मुनि द्वारा तपागच्छियों को शाकिनी-डाकिनी से भी क्रूर एवं भव-भवान्तरों को नष्ट करने वाला बताकर उनसे कोसों दूर रहने का परामर्श अथवा उपदेश दिया गया और तपागच्छीय विशिष्ट प्रतिभा के धनी विद्वान् द्वारा अन्य सभी गच्छों, सम्प्रदायों को उत्सूत्र प्ररूपक,संघबाह्य,तीर्थाभास आदि अशोभनीय-अप्रीतिकर उपाधियों से लांछित किया गया । पारस्परिक विद्वेष के उस युग में गच्छों की बाड़ेबन्दी के परिणामस्वरूप पारस्परिक विद्वेष वस्तुतः इस पराकाष्ठा तक पहुंच चुका था कि चाहे कोई कितना ही महान् से महत्तर प्रभावक प्राचार्य क्यों न हो, यदि वह अपने गच्छ से भिन्न किसी भी गच्छ का प्राचार्य हो और लोकप्रिय हो रहा हो, तो उसे सहज ही दो प्रोष्ठ हिलाकर अथवा लेखिनी से सात अक्षर लिखकर अपने गच्छ की ओर से उत्सूत्रप्ररूपक की उपाधि का अमर पट्टा प्रदान किया जा सकता था। दादा जिनदत्तसूरि, उनके गुरु जिनवल्लभसूरि, म्लेच्छ प्रतिबोधक जिनशासन प्रभावक जिनप्रभसूरि, तिलकाचार्य आदि अनेक क्रियोद्धारकः प्राचार्यों के नाम उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत किये जा सकते हैं, जिनको उनके विरोधी गच्छ के विद्वानों ने उनकी अनुपम अमर सेवाओं की नितान्त उपेक्षा कर उन्हें उत्सूत्र प्ररूपक, तीर्थबाह्य, जमालीतुल्य उत्सूत्र प्ररूपक, प्रौष्ट्रिक आदि अशोभनीय उपाधियों से, उपमाओं से अलंकृत किया। कालान्तर में खरतरगच्छ के नाम से विख्यात वर्द्धमानसूरि, जिनेश्वरसूरि की यशश्विनी परम्परा के जिन प्राचार्यों ने जिनशासन की जो महती सेवा की थी, उन प्राचार्यों में दादा जिनदत्तसूरि जी का नाम बड़े सम्मान के साथ स्मरण किया जाता रहा है, किया जा रहा है और यावच्चन्द्र दिवाकरौ सदा सम्मान के साथ स्मरण किया जाता रहेगा। किन्तु गच्छविशेष के ग्रन्थकार मुनि ने उनकी किस प्रकार से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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