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________________ २८० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ यदि हमारे कथन में किंचित् मात्र भी प्रतिशयोक्ति अथवा अनौचित्य हो तो हम पहले ही मिच्छा मे दुक्कड़ ( मिथ्या भवतु दुष्कृतम् ) कह देते हैं कि वस्तुतः शाकिनियों और मुद्गलों की अपेक्षा तपोटा ( तपागच्छ वाले ) अधिक दुष्ट हैं क्योंकि शाकिनियों एवं मुद्गलों द्वारा खाये हुए लोगों का उपचार हो सकता है परन्तु जिन लोगों को तपागच्छ वालों ने खा लिया उनका तो उपचार सुनिश्चित रूपेण असंभव ही है । शाकिनियां एवं मुद्गल तो एक प्रारणी को एक भव में ही मारते हैं किन्तु तपागच्छ एक ऐसा क्रूर ग्रह है जो अनन्त काल तक भव-भवान्तरों में भी प्राणियों के जीवन को नष्ट करता रहता है । ये तपागच्छ वाले उल्टी खोपड़ी, उल्टी बुद्धि वाले, क्रूर, दूसरों की समृद्धि, अभ्युन्नति को देखकर जलने वाले छोटे बड़े की पहचान के ज्ञान से नितान्त शून्य और जिनेश्वर प्रभु के धर्मशासन के निन्दक हैं । मुझे तो इन तपागच्छयों का ज्ञान केवल गर्म पानी पीने तक, दर्शन केवल मुख फुलाये रहने तक और चरित्र अपने शरीर ( एवं वस्त्रों) पर मल ( मैल) धारण किये रहने तक ही सीमित प्रतीत होता है | शास्त्रों में वर्णान्तर आदि को प्राप्त जिस शीतल जल को मुनियों तक के लिये प्राशुक अर्थात् ग्राह्य एवं पीने योग्य बताया गया है, उसका इन तपागच्छियों ने न केवल साधु-साध्वियों के लिये ही अपितु श्रावक-श्राविकाओं तक के लिये भी पीने का वर्जन किया है । एकमात्र अकाय ( जलगत ) जीवों की हिंसा से तैयार हुए प्राशुक ( निर्दोष) शीतल जल के उपयोग का निषेध कर इन तपागच्छियों ने छहों जीवनिकायों की हिंसा से तैयार किये जाने वाले उष्ण जल के उपयोग का उपदेश गृहस्थों को दिया । इस प्रकार के साम्प्रदायिक व्यामोहजन्य पारस्परिक विद्वेष के युग में जिन विद्वान् मुनियों की लेखिनियां अपने से इतर गच्छ वालों को लोक दृष्टि में नीचा और अपने गच्छ को सर्वश्रेष्ठ दिखाने के उद्देश्य से चलीं, उन विद्वान् मुनियों का नामोल्लेख करना न तो श्रेयस्कर ही है और न गरणनातीत होने के कारण संभव ही । परस्पर एक-दूसरे पर कीचड़ उछाल कर जैन संघ, जिनशासन की छवि को उज्ज्वल करने के नाम पर विकृत विरूप करने वाले मुनियों की हजारों पृष्ठों की कतिपय मुद्रित और अनेकों हस्तलिखित प्रतियां आज भी विभिन्न ग्रन्थागारों-ज्ञान भण्डारों में उपलब्ध हैं । इस प्रकार के विपुल मात्रा में उपलब्ध खण्डन - मण्डनात्मक ग्रन्थों के निष्पक्ष दृष्टि से अध्ययन, निदिध्यासन, पर्यालोचन से ऐसा प्रतीत होता है कि अपने गच्छ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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