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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] जिनदत्तसूरि
बाह्य क्रिया दर्शनेन, मोहयन्तो जगज्जनम् । तपोभूता अटन्तीति, तपोटाः परिकीर्तिताः ॥१॥ तपोटानां मतं चैव मुद्गलानां मतं तथा । शाकिनीनां मतं चैव, प्रायस्तुल्यानि वक्ष्यते ।।२।। संक्लिष्टपरिणामित्वात् तुल्यमेतन्मतत्रयम् ।। तस्माद् दूरतरं त्याज्यं, भावशुद्धिमभीप्सता ।।३।। अयुक्तमुक्तमथवा, मिथ्यादुष्कृतमस्तु नः । शाकिनी मुद्गलेभ्योऽपि, यत्तपोटा दुराशयाः ।।४।। शाकिनी मुद्गलात्तानां, दृश्यतेऽद्याप्युपक्रमः । तपोटेनार्दितानां तु, चिकित्सास्याद्दरा भृशम् ।।५।। हिनस्ति जन्मन्येकत्र, शाकिनी-मुद्गलग्रहः । । तपोट कुग्रहस्त्वेष, प्रणिहन्ति भवे-भवे ।।६।। विपर्यस्तधियः क्रूराः, परद्धिमसहिष्णवः । गुरु लाघव विज्ञानवन्ध्याः शासननिन्दिनः ।।७।। ज्ञानमुष्णपयः पानं, दर्शनं मुखमुद्रणम् । चारित्रं तर्कयाम्येषां, केवलं मलधारणम् ।।८।। वर्णान्तरादि प्राप्तं सत्, प्राशुकं च श्रुते स्मृतम् । न्यवारि शिशिरंवारि, तदपि नेति गहिनाम् ।।६।। अप्कायमात्रहिंसोत्थं, निरस्य प्राशुकोदकम् । प्रारूपि गृहिणामुष्णं, वाः षट्कायापमर्दद्जम् ॥२॥'
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अर्थात् तप के साक्षात् अवतार का स्वांग बनाये केवल बाह्य (दिखावटी) साधु आचार से लोगों को सम्मोहित करते हुए इधर-उधर विचरण करने वाले तपोट अर्थात् तपागच्छीय कहे गये हैं।
___इन तपागच्छीयों का मत, म्लेच्छों का मत, और शाकिनियों (डाकिनी की भांति हीन जाति की पिशाचिनी) का मत-ये तीनों मत प्रायः एक दूसरे से मिलतेजुलते ही कहे गये हैं।
दुर्भावनाओं से ओत-प्रोत बुरे परिणामों के कारण ये तीनों मत परस्पर मिलते-जुलते ही हैं। इसलिये भावशुद्धि के इच्छुक प्रत्येक व्यक्ति को चाहिये कि वह तपागच्छ से सदा दूर ही रहे ।
तपागणदूषण शतक "तपोमत कुट्टण" (तुगलक मोहम्मदशाह प्रतिबोधक, विधिमार्ग प्रपा, विविधतीर्थ कल्प प्रादि ग्रन्थों के वि० सं० १३६३, वि० सं० १३८६ में रचयिता विक्रम की १४वीं शताब्दी के श्री जिनप्रभुसूरि द्वारा विरचित)।
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