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________________ २७८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ इस प्रकार की वस्तुस्थिति के होते हुए भी साम्प्रदायिक विद्वेष के वशीभूत हो कतिपय मध्ययुगीन विद्वान् श्रमरणों ने अपने गच्छ को ही सत्य और सव अन्य गच्छों को, उनकी रीति-नीतियों को असत्य सिद्ध करने के प्रयास में परस्पर एक दूसरे गच्छ पर, उसके प्राचार्यों पर न केवल कीचड़ उछालना ही प्रारम्भ किया ग्रपितु दिगम्बर पौणिमीयक, खरतर, आंचलिक सार्द्धपौणिमीयक, आगमिक ( त्रिस्तुतिक), लोंका, ग्रामती, बीजामती और पाशचन्द्र गच्छ — इन दशों ही ग्राम्नायों, सम्प्रदायों अथवा गच्छों को कुपाक्षिक, उत्सूत्रभाषी, कुत्सित, तीर्थनिन्द्य, ग्रभिनिवेश मिथ्यात्वी, तीर्थंकरमूलक, तीर्थाभास, उल्लू, औष्ट्रिक ( जिनदत्तः ) ग्रनन्तसंसारी और तीर्थबाह्य प्रादि यदि कुत्सित सम्बोधनों से संबोधित किया । उपाध्याय पद को सुशोभित करने वाले एक विद्वान् मुनि ने तो प्रशोभनीयता की पराकाष्ठा को पार करते हुए श्री जिनदत्तसूरि एवं सम्पूर्ण खरतरगच्छ के लिये लिख दिया – “प्रतिशयेन खरः खरतर - इति व्युत्पत्या महान् गर्दभ:, उग्रतरो वा भाप्यते ।" अर्थात् खरतर शब्द का अर्थ है सबसे बड़ा गधा अथवा प्रत्यन्त उग्र स्वभाव वाला । दूसरों के मुख पर कालिख पोतने के प्रयास में इस प्रकार की प्रसाधु योग्य अपशब्द भरी असभ्य भाषा के प्रयोगों को देख कर ऐसा प्रतीत होता है कि - "सच्चे हैं तो केवल हम ही, शेष जगत् सब झूठा ।” इस व्यामोह में विमुग्ध बने अपने समय के उच्च कोटि के विद्वान् माने गये मुनियों की लेखनी भी उन्मत्त हो बिना नकेल के ऊंट की भांति ऊबड़-खाबड़ में उछल फांद करती हुई यथेच्छ दौड़ी है, खूब खुलकर उच्छृंखल गति से चली है । यह प्रकृति का अटल नियम है कि प्रत्येक भले-बुरे काम की भली बुरी प्रक्रिया अनिवार्य रूपेण होती है। किसी भी गगनचुम्वी गिरिराज की उपत्यका अथवा गुफा के पास जाकर कोई पुकारे - "आप महान् हो ।" प्रतिक्रिया स्वरूप उस तरह पुकारने वाले के कर्णरन्ध्रों में गुफा से वैसी ही प्रतिध्वनि गुंजरित हो उठेगी - "आप महान् हो ।" यदि कोई व्यक्ति गुफा द्वार पर खड़ा हो पुकारता है – “तू उल्लू है - गधा भी ।" तो गिरि गुहा से उस व्यक्ति के कर्णरन्ध्रों में वही शब्द गूंज उठेंगे-"तू उल्लू है, गधा भी ।" ठीक इसी प्रकार गच्छ- व्यामोहाभिभूत जिस गच्छ के विद्वान् ने दूसरे गच्छों पर अपशब्दों की वर्षा की, उनमें से किसी भी गच्छ के लेखक ने उस श्राक्रामक गच्छ की छवि बिगाड़ने के प्रयास में किसी भी प्रकार की कोरकसर नहीं छोड़ी । एतद्विषयक अग्रलिखित श्लोकों से स्पष्टतः उस समय के साम्प्रदायिक व्यामोहपूर्ण विद्वेष का ताण्डव प्रत्यक्षवत् दृष्टिगोचर हो जाता है : प्रवचन परीक्षा, भाग १, पृष्ठ ५, ६, १९, ५६ आदि । १. १. प्रवचन परीक्षा, भाग १, पृष्ठ २८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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