SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] जिनदत्तसूरि [ २७७ के प्रचार-प्रसार में अहर्निश संलग्न रहे—'मैं संसार के प्रत्येक प्राणी को जिनशासन के प्रति प्रगाढ़ रुचि रखने वाला, रस लेने वाला बना दूं।" इस प्रकार की उच्च भावना, त्याग, तप, संयम एवं अखण्ड ब्रह्मचर्य के प्रताप से जिनदत्तसूरि को दुस्साध्य से दुस्साध्य असाध्य कहे जाने वाले कार्यों को सुसाध्य बना देने की अदभत इच्छाशक्ति व आत्मशक्ति प्राप्त हो गई थी और लोक में इसे चमत्कार की संज्ञा दी जाने लगी। सुविहित परम्परा के प्रति प्रगाढ़ शत्रुता रखने वाली चैत्यवासी परम्परा के महा प्रभावशाली प्राचार्य अपने शिष्य परिवार सहित जिनदत्तसूरि की सेवा में उपस्थित हो यह कहते हुए-"हमें गुरु मिले तो भव भवान्तरों में जिनंदत्तसूरि ही मिलें" जिनदत्तसूरि के शिष्य बन गये-यह कोई मन्त्र का चमत्कार नहीं, जिनदत्तसूरि की "सभी जोव करुं जिनशासन रसी" इस उत्कट भावना का चमत्कार था। जिनदत्तसूरि के महान् कार्यों ने उनकी कीर्ति को अमर बना दिया । आज देश के विभिन्न प्रान्तों के नगर-नगर में दादावाड़ियां, दादावाड़ियों के मन्दिरों में उनकी चरणपादुकाएं प्रत्येक श्रद्धालु जैन अथवा अजैन को मूक प्रेरणा दे रही हैं कि तुम भी त्याग तप और अहर्निश उत्कट विशुद्ध भावना से जिनशासन की सेवा कर पूजनीय बन सकते हो। गच्छ व्यामोहजन्य विद्वष का ताण्डव : यह पहले बताया जा चुका है कि आडम्बर प्रधान द्रव्यार्चना (द्रव्य पूजा) और अपनी शिथिलाचारोन्मुखी समाचारी, आचार सम्बन्धी रीति-नीतियों, विधियों, विधानों के माध्यम से चैत्यवासियों द्वारा विकृत किये गये, आमूल-चूल परिवर्तित किये गये जैन धर्म के मूल विशुद्ध प्रागमिक स्वरूप की पुनः प्रतिष्ठापना की दिशा में वर्द्धमानसूरि की परम्परा के जिनेश्वरसूरि, जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, जिनवल्लभसूरि और जिनदत्तसूरि आदि प्राचार्यों ने जो भगीरथ प्रयास किये, वे जैन इतिहास में सदा-सर्वदा के लिए बड़े सम्मान के साथ स्वर्णाक्षरों में लिखे जाते रहेंगे। यह तो एक निर्विवाद सत्य तथ्य है कि वर्द्धमानसूरि, उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि, बुद्धिसागरसूरि आदि ने जैन धर्म के आगमानुसारी विशुद्ध स्वरूप को जैन जगत् के समक्ष उजागर करने के एकमात्र उद्देश्य से जन-जन के मन और मस्तिष्क पर छाई हुई चैत्यवासी परम्परा के विरुद्ध अभियान प्रारम्भ कर उसके वर्चस्व को समाप्त न किया होता तो आज के युग में जैन धर्म के प्रागमिक स्वरूप के दर्शन तक दुर्लभ हो जाते । आज आर्यधरा के विभिन्न प्रदेशों, क्षेत्रों, ग्रामों और नगरों में शास्त्रसम्मत श्रमणाचार का पालन करते हुए, जैन धर्म के आगम प्रणीत आध्यात्मिक स्वरूप का प्रचार-प्रसार करने वाले साधु साध्वियों के जो संघाटक विचरण कर रहे हैं, यह वस्तुतः मुख्य रूपेण वर्द्धमानसूरि की परम्परा के जिनेश्वरसूरि आदि प्राचार्यों द्वारा जैन जगत् पर किये गये असीम उपकार का ही प्रतिफल है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy