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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
संस्कृत
श्लोक
१०
१७. चक्रेश्वरी स्तोत्र १८. सर्व जिन स्तुति १६. वीर स्तुति २०. योगिनी स्तोत्र
प्रकीर्णक रचनाएं
२१. अवस्था कुलक २२. विशिका २३. पद व्यवस्था २४. शान्तिपर्व विधि २५. वाडी कुलक २६. पारात्रिक वृत्तानि २७. अध्यात्म गीतानि'
जिनदत्तसूरि की रचनाओं से जैन समाज में एक अभिनव जागरण को अमिट लहर तरंगित हो उठी, जिसका दूरगामी एवं चिरस्थायी परिणाम यह हुआ कि शताब्दियों से चैत्यवासी परम्परा की अोर बह रहे लोक प्रवाह ने सहसा सुविहित परम्परा की ओर मोड़ ले लिया।
जिनदत्तसूरि का संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश आदि भाषाओं पर पूर्ण अधिकार एवं अद्भुत अभिव्यंजना शक्ति होने के साथ-साथ इन सभी भाषाओं में इनकी अभिव्यंजना शक्ति एवं शैली बड़ी ही चमत्कारपूर्ण थी। उपरि वरिणत अपनी रचनामों में आपके द्वारा प्रयुक्त एक-एक शब्द अपने आप में अथाह भावों के अर्थ सागर को समेटे हुए गागर के समान है। अपभ्रंश भाषा में आपके द्वारा की गई रचनाएं न केवल विषय की दृष्टि से अपितु तत्कालीन साहित्य एवं भाषा विज्ञान के इतिहास की दृष्टि से भी वस्तुतः महत्त्वपूर्ण हैं। अपभ्रंश भाषा की आपकी रचनाओं में हिन्दी भाषा के उद्भव के क्रमिक विकास एवं भाषा विज्ञान से सम्बन्धित अध्ययनीय प्रचुर सामग्री भरी पड़ी है। आवश्यकता है, इस दिशा में गहन शोध की।
__ चमत्कारिक महापुरुष खरतरगच्छ के उन्नायक दादा जिनदत्तसूरि के जीवन का बहुत बड़ा भाग चमत्कारों से परिपूर्ण है। उनके चमत्कारों के आश्चर्यकारी पाख्यान आज भी देश के विभिन्न भागों में जन-जन में लोकप्रिय हैं। कर्ण-वेध से पूर्व की बाल्य वय में आपने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पंचमहाव्रतों की दीक्षा ग्रहण की। जीवन-पर्यन्त इसी उत्कट भावना के साथ जैन धर्म
१. खरतरगच्छ गुर्वावली, पृष्ठ १६, पैरा ३७
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