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________________ २८६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ __ सबसे बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि परस्पर एक-दूसरे गच्छ पर कीचड़ उछालने वाले विद्वान् ग्रन्थकार मुनियों को उनके समय के महान् प्रभावक प्राचार्यों तक का प्रश्रय प्राप्त होता रहा और इस प्रकार के पारस्परिक वैमनस्य का प्रचार-प्रसार करने वाले ग्रंथकार विद्वान् मुनियों के सिर पर उन प्रभावक महान् आचार्यों का पूर्ण वरद हस्त रहा। इस कटु सत्य के साक्ष्य के रूप में उपाध्याय धर्म सागर द्वारा रचित "कुपक्ष कौशिक सहस्र किरण" नामक ग्रन्थ आदि से अन्त तक पठनीय एवं मननीय है । ७७० पृष्ठों के पूर्व एवं उत्तर इन दो भागों में दृब्ध इस विशाल ग्रन्थ में दिगम्बर १, पौरिणमीयक २, प्रौष्ट्रिक (खरतरगच्छ) ३, पाशचन्द्रगच्छ ४, स्तनिक (अंचलगच्छ) ५, सार्द्ध पौणिमीयक ६, आगमिक ७, कटुक ८, लुम्पाक (लोकागच्छ) ६ और बीजामती १०-इन दशों ही आम्नायों-गच्छों की कटुतर एवं अशोभनीय भाषा में कटु आलोचना की गई है। इस ग्रन्थ में एक मात्र अपने गच्छ को ही सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयास के साथ-साथ उपरिनामांकित शेष दशों हो पाम्नायों को उत्सूत्र प्ररूपक एवं तीर्थबाह्य बताया गया है। इस ग्रन्थ की रचना से सम्पूर्ण जैन संघ में विक्रम की १७वीं शताब्दी के द्वितीय दशक में बड़ा ही भीषण विद्वेष फैला। उस विद्वेषपूर्ण वातावरण को शान्त करने के लिए उ० धर्मसागर के गुरु प्राचार्य श्री विजयदानसूरि ने उस ग्रन्थ को जल में प्रवाहित कर दिया अर्थात् उपाध्याय श्री धर्मसागर के उस ग्रन्थ को जल में डुबो दिया और धर्म सागर को चतुर्विध धर्म संघ से अपनी उक्त रचना के लिए क्षमा याचना करनी पड़ी। उपाध्याय धर्मसागर के इसी ग्रन्थ को विजयदानसूरि के स्वर्गस्थ होने के ७ वर्ष पश्चात् वि. सं. १६२६ में विजयदानसूरि के पट्टधर, अकबर प्रतिबोधक महान् प्रभावक प्राचार्य हीरविजयसूरि ने पुन: प्रकट करवाकर अपनी ओर से इस ग्रन्थ का अपर नाम "प्रवचन परीक्षा" रखा। __ दादा श्री जिनदतसूरीश्वर ने अपने प्राचार्य काल में जिनशासन की कितनी महती प्रभावना की होगी, इसका अनुमान इस तथ्य से सहज ही लगाया जा सकता है कि भारत के सुदूरस्थ प्रदेशों में आपके चरण चिन्हांकित मन्दिरों से सुशोभित दादाबाड़ियां आज भी सहस्रों की संख्या में विद्यमान हैं और विरोधी गच्छों के विद्वानों द्वारा प्रापश्री के विरुद्ध किया गया धुप्रांधार प्रचार भी आपकी लोकप्रियता एवं लोकपूज्यता में लवलेश मात्र भी अन्तर लाने में पूर्णतः निष्फल रहा । १. (क) ग्रंथ के मुख पृष्ठ पर ग्रन्थ का नाम 'श्री प्रवचन परीक्षा (श्री हीरविजयसूरीयाभिधा), कुपक्षकौशिक-सहस्र किरण, (ग्रन्थकृत्कृताभिधा)" (ख) इस ग्रन्थ के सभी ग्यारहों विश्रामों के अन्त में निम्नलिखित पंक्तियां उल्लिखित हैं.--''इतिश्रीमत्तपागरणनभोमणि श्रीहीरविजयसूरीश्वर शिष्योपाध्याय श्री धर्मसागरगणि विरचित स्वोपज्ञ कुपक्षकौशिक सहस्र किरणे श्री हीरविजयसूरिदत्त प्रवचन परीक्षा नाम्नि प्रकरणे "विश्रामो व्याख्यातः ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org..
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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