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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] जिनदत्तसूरि
[ २६५ .. अभ्युदय, अभ्युत्थानकारी एवं स्व-पर कल्याणकारी कार्यों में लीन हो गये । जैनधर्म के विशुद्ध स्वरूप के साथ-साथ सुविहित परम्परा को प्रकाश में लाने के दृढ़ संकल्प वे साथ श्री वर्धमानसूरि, श्री जिनेश्वरसूरि आदि इस परम्परा के यशस्वी प्राचार्यों ने चैत्यवासियों के वर्चस्व का समूलोन्मूलन करने वाली धर्म क्रान्ति का सूत्रपात किया था। उस धर्म क्रान्ति के पथ पर मुनि सोमचन्द्र भी अग्रसर होते रहे। स्वल्प समय में ही मुनि सोमचन्द्र के गुणों की सौरभ दूर-दूर तक फैलने लगी। इससे श्री देव भद्राचार्य का सोमचन्द्र मुनि पर धर्म स्नेह उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया ।
दैव दुर्विपाकवशात् वि० सं० ११६७ की कार्तिक कृष्णा द्वादशी को रात्रि के अंतिम प्रहर में अभयदेवसूरि के पट्टधर, इस प्रतापी गच्छ के अपने समय के महान् प्रभावक आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि ने तीन दिन की संलेखना से समाधिपूर्वक स्वर्गारोहण किया। इस अनभ्र वज्रपात से चतुर्विध संघ के हृदय को गहरा आघात पहुँचा। देवभद्राचार्य को श्री जिनवल्लभसूरि के आकस्मिक स्वर्गवास से मानसिक संताप ने पा घेरा । वे विचारने लगे कि अभयदेवसूरि के पट्ट को वस्तुतः जिनवल्लभसूरि समीचीन रूप से समुद्योतित कर रहे थे। पर कराल काल की कुदृष्टि ने उन्हें जैन संघ से छीन लिया। उन्होंने मन ही मन निश्चय किया कि जिनवल्लभसूरि के पट्ट पर किसी ऐसे सुयोग्य पात्र को प्रतिष्ठित किया जाये जो जिनशासन को जिनवल्लभसूरि के समान उद्योतित कर सके।
हमारे गच्छ में ऐसा सुयोग्य एवं प्रतिभाशाली विद्वान् साधु कौन है, जो जिनवल्लभसूरि के पट्ट की श्रीवृद्धि के साथ-साथ जिन शासन के वर्चस्व की अभिवृद्धि करने में सक्षम हो—इस विषय में चिन्तन करते-करते देवभद्राचार्य के मस्तिष्क में पंडित मुनि सोमचन्द्र का नाम उभर आया। मुनि सोमचन्द्र की प्राथमिकता पर मन ही मन विहंगमावलोकनपूर्वक समीक्षा करते हुए श्री देवभद्राचार्य ने अनुभव किया कि मुनि सोमचन्द्र वस्तुतः उन सभी गुणों से सम्पन्न हैं जो कि एक प्रभावक प्राचार्य में होने चाहिये। वह वाग्मी हैं, विद्वान् हैं, नितान्त निर्भीक हैं और हैं स्पष्टवादी । अनुकूल हो अथवा प्रतिकूल-सभी प्रकार की परिस्थितियों में संघ को आगे बढ़ाने की मुनि सोमचन्द्र में अद्भुत क्षमता है। वह भव्य व्यक्तित्व का धनी ओजस्वी, गहन गम्भीर और प्रतिभाशाली है । उसका हृदय नवनीतवत् सुस्निग्ध सुकोमल और मनोबल वज्र से भी कठोरतम है। वह जिनवल्लभसूरि के पट्टधर पद के लिये सभी दृष्टियों से सर्वथा योग्य है।
देवभद्राचार्य ने चतुर्विध संघ से मंत्रणा के पश्चात् पं० सोमचन्द्र को संदेश भेजा कि वे सीधे चित्तौड़ पहुँच जायें जिससे कि उन्हें जिनवल्लभसूरि के पट्ट पर आसीन किया जाये । वस्तुतः जिनवल्लभसूरि की भी यही इच्छा थी।
समय पर शिष्य परिवार सहित देवभद्राचार्य एवं वर्द्धमानसूरि के गच्छ के अनेक साधु और श्रावक आदि चित्तौड़ पहुँचे । चतुर्विध संघ में कर्ण परम्परा से यह
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