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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग-४
यह तो आपने उचित ही किया, किन्तु मेरे मस्तक पर जो चोटी थी उसे मेरे मस्तक पर उसी रूप में यथावत् उगाकर मुझे प्रदान कीजिये, जिससे कि मैं अपने घर लौट सकूँ ।"
मुनि सोमचन्द्र की इस बात को सुनकर सर्वदेवगरण के प्राश्चर्य का पारावार न रहा । उन्होंने मन ही मन यह कहते हुए कि इसकी इस बात का कोई उत्तर किसी के पास नहीं है, सोमचन्द्रमुनि को उनके दोनों धर्मोपकरण तत्काल लौटा दिये और वे दोनों उपाश्रय में लौट आये । सर्वदेवगरण ने धर्मदेव उपाध्याय को इस घटना का उपर्युक्त विवरण सुनाया । धर्मदेव उपाध्याय को विश्वास ह्ये गया कि यह बालक भविष्य में जिनशासन का सक्षम प्रभावक सिद्ध होगा । "
धवलकपुर से मुनि सोमचन्द्र अपने अभिभावक गुरु श्री सर्वदेवगरण के साथ विचरण करते हुए पाटण प्राये । वहां उनके अध्ययन की व्यवस्था की गई । a भावडाचार्य के पास अध्ययन करने लगे । एक दिन अध्ययनार्थ भावड़ाचार्य की धर्मशाला की ओर जाते हुए मुनि सोमचन्द्र से एक उद्धत किशोर ने पूछा - "ओ श्वेतपट ! हाथ में यह कपलिका किस लिये रखी है ?" प्रत्युत्पन्नमति सोमचन्द्र मुनि ने तत्काल उस उद्धत को उसी की मुद्रा में उत्तर देते हुए कहा - "तुम्हारे मुख को विचूरिंगत करने और अपने मुख की शोभा बढ़ाने के लिये ।” प्रश्नकर्ता हतप्रभ हो अवाक् की भांति देखता ही रह गया । २
भावड़ाचार्य के पास प्रगाढ़ निष्ठापूर्वक अध्ययन करते हुए मुनि सोमचन्द्र ने लक्षण पंजिका आदि अनेक विषयों के ग्रन्थों में पारीणता प्राप्त की । भावड़ाचार्य मुनि सोमचन्द्र की कुशाग्र प्रत्युत्पन्नमति एवं प्रतिभा से पूर्णतः प्रभावित थे । मुनि सोमचन्द्र को अपने पास आने वाले सभी शिक्षार्थी शिष्यों में सर्वश्रेष्ठ मानते और उन्हें कस्तूरी की उपमा से उपमित किया करते थे । चतुर्विध संघ को आश्चर्यविभोर करते हुए मुनि सोमंचन्द्र ने स्वल्प समय में ही व्याकरण, छन्द शास्त्र, न्याय, नीति आदि विषयों में आधिकारिक प्रकाण्ड पाण्डित्य प्राप्त कर आगमों का अध्ययन प्रारम्भ किया । श्री हरिसिंहाचार्य ने मुनि सोमचन्द्र को यथा क्रम से सभी आगमों का अध्ययन करवाया । प्रगाढ़ श्रद्धाभक्ति एवं निष्ठापूर्वक आगमों का तल-स्पर्शी ज्ञान प्राप्त कर लेने के पश्चात् पण्डितमुनि सोमचन्द्र विभिन्न क्षेत्रों में अप्रतिहत विहार कर अनेक भव्य प्राणियों को प्रतिबोध देते हुए जिनशासन के
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शिक्षानिमित्तं रजोहरणं मुखवस्त्रिका च गृहीता - “स्वगृहे गच्छ ।” ------युक्तं गणिना कृतं परं सा मम मस्तके चोटिकासीत् तां तु दापय । गुरुभिश्चिन्तितं भविष्यति योग्य
एषः । खरतरगच्छ वृ० गुर्वावली पृष्ठ- १४
खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली पृष्ठ १४-१५
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