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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ मनसि । ततश्चात्मतृतीय आगम विधिना सुशकुनेन भव्यजनमनसि भगवद्भरिणत विधि धर्मोत्पादनाय चित्रकूट देशादिसु विहृतः । ते च देशा सर्वेऽपि प्रायेण देवगृहनिवासीमुनीन्द्राप्ताः । सर्वोऽपि तद्वासितो लोकः, किं बहुना । नानाग्रामेषु विहारं विदधंश्चित्रकूटे प्राप्तः । यद्यपि तत्राशुभै
र्भाविता लोकास्तथाप्ययुक्तं कर्तुं न शक्नुवन्ति, पत्तने गुरूणां प्रसिद्धि श्रवणात् ।'
अर्थात् अभयदेवसूरि के स्वर्गस्थ हो जाने के अनन्तर कुछ समय तक अनहिल्लपुर पट्टण में तथा उसके आसपास के क्षेत्रों में विचरण करने के अनन्तर जिनवल्लभ गरिण ने यह अनुभव किया कि वहां उनके उपदेशों से कोई विशेष लाभ होता दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है, न किसी को अपनी विचारधारा के अनुरूप मोड़ देकर अन्तर्मन को प्राङ्गादित कर देने वाला कार्य ही किया जाना सम्भव है। इस प्रकार का दृढ़ विश्वास होते ही उन्होंने प्रभु महावीर द्वारा प्ररूपित विधि मार्ग के अभ्युदयोत्थान के उद्देश्य से शुभ मुहूर्त में शुभ शकुन होने पर चित्रकूट आदि प्रदेशों की ओर दो और साधुओं के साथ विहार किया। वे सभी प्रदेश प्रायः चैत्यवासी परम्परा के प्राचार्यों के सुदृढ़ प्रभाव में थे। वहां के निवासियों के मानस में चैत्यवासी परम्परा की विचारधारा कूट-कूट कर भरी हई थी। अनेक ग्रामों में विचरण करते हुए वे चित्तौड़ पहुँचे। यद्यपि वहां के निवासियों के अन्तमन में जिनवल्लभसूरि के प्रति अशुभ भावनाएं भरी हुई थीं तथापि वे लोग उनका किसी भी प्रकार का अनिष्ट करने में सक्षम नहीं हो सके। क्योंकि अहिल्लपुर पट्टण में जो उनकी प्रसिद्धि हुई थी उसकी सुवास उस समय तक सुदूरस्थ प्रदेशों में व्याप्त हो चुकी थी। उन्होंने विश्राम के लिए वहां के श्रावकों से आवास की याचना की, किन्तु उन श्रावकों ने वसति से दूर निर्जन एकान्त में अवस्थित चामुण्डा मठ की ओर इंगित करते हुए कहा-"वह चामुण्डा का मठ आपको निवास के लिए मिल सकता है और कोई स्थान आपके लिए नहीं है।" जिनवल्लभसूरि तत्काल ताड़ गये कि उन श्रावकों के मन में उनके प्रति दुर्भावना है। वहां किसी प्रकार के दैवी उपद्रव उपस्थित होने का इनको विश्वास है। इसी कारण उन्होंने वह निर्जन एकान्त स्थान हमें रहने के लिए बताया है। देवगुरु प्रसाद से सब कुछ भला ही होगा, मन ही मन यह विचार कर उन्होंने प्रकट में कहा-"ठीक है, हम वहीं रह जायेंगे । साधना के लिए तो निर्जन एकान्त स्थान ही सर्वोत्तम होता है।"
__उन्होंने तत्काल परमेष्ठी-मन्त्र का ध्यान कर चामुण्डा मठ की ओर प्रयाण किया और वहां जाकर देवी की अनुज्ञा ले विश्राम किया।
खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली के उपर्युल्लिखित उद्धरण से भी यही तथ्य प्रकाश में आता है कि समस्त मेदपाट तक में विक्रम की बारहवीं शताब्दी के
१. खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली पृष्ठ १०
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