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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ 1 जिनवल्लभसूरि [ २५७ पाटण छोड़कर विहार क्रम से चित्तौड़ पहुँचे, उस समय चित्तौड़ में भी चैत्यवासियों का ही प्रभुत्व एवं प्राबल्य था । यही कारण था कि जिनवल्लभसूरि को रहने के लिये प्रारम्भ में कोई अनुकूल स्थान न मिलने के कारण उन्हें दैवी आपदाओं के स्थान चामुण्डा के मठ में निवास करना पड़ा । खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली के एतद् विषयक उल्लेख से स्पष्टतः यही प्रकट होता है कि अभयदेवसूरि के स्वर्गस्थ होने के लगभग एक दो दशक पर्यन्त न केवल गुजरात अपितु मेदपाट आदि अनेक स्थानों पर चैत्यवासियों का पूर्ण वर्चस्व, प्रभुत्व व प्राबल्य था । 1 अभयदेवसूरि के स्वर्गस्थ होने के कुछ ही वर्षों पश्चात् दोनों परम्पराओं के सम्बन्धों में तनाव उत्पन्न हो जाने के संकेत जैन वांग्मय में दृष्टिगोचर होते हैं । इसका प्रमुख कारण यही रहा कि जिनवल्लभसूरि क्रान्तिकारी विचारधारा के विद्वान् उपाध्याय थे । वे शीघ्रातिशीघ्र चैत्यवासी परम्परा के शिथिलाचार और चैत्यवासियों द्वारा जिन शासन में प्रविष्ट की गई विकृतियों के समूलोन्मूलन के लिए व्यग्र हो उठे थे । उन्होंने अनहिल्लपुर पट्टरण में भी विधि चैत्य के नाम से अनेक चैत्यालयों का निर्माण करवाया । किन्तु राज्याश्रय प्राप्त चैत्यवासी परम्परा ने उन विधि चैत्यों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर सुविहित परम्परा के शब्दों में उन्हें प्रविधि चैत्य के रूप में परिवर्तित कर दिया। श्री जिनवल्लभसूरि के इस प्रकार के क्रान्तिकारी प्रयासों ने न केवल चैत्यवासी परम्परा को ही अपितु सुविहित परम्परा के जितने भी कर्णधार आचार्य, उपाध्याय अथवा विद्वान् श्रमण जो अहिल्लपुर पट्टण में उस समय विद्यमान थे, उन सब को भी रुष्ट कर दिया । जिनवल्लभसूरि के इन सुधारवादी प्रयासों से चैत्यवासी परम्परा के प्राचार्यों, श्रमणों, श्रावक एवं श्राविका वर्ग का रुष्ट हो जाना तो सहज स्वाभाविक ही था किन्तु सुविहित परम्परा के जो प्राचार्य, उपाध्याय, गरिण, विद्वान् श्रमरण आदि जिनवल्लभ गर के इन कार्यों से रुष्ट हुए, उसके पीछे यही एक कारण था कि सुविहित परम्परा के साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ की यह दृढ़ धारणा थी कि चैत्यवासी परम्परा के साथ सम्बन्धों को बिगाड़कर वे कम से कम विशाल गुर्जर प्रदेश में अपना अस्तित्व सुदृढ़ नहीं रख सकते । इसी कारण चैत्यवासी परम्परा के रुष्ट होते ही सुविहित परम्परा के कर्णधार भी जिनवल्लभसूरि से रुष्ट हुए । क्योंकि वे चैत्यवासी परम्परा के साथ मधुर व्यवहार रखने में ही अपना भला समझते थे । इस प्रकार अपने प्रतिपक्षियों और पक्ष वाले समुदाय के रुष्ट हो जाने के परिणामस्वरूप जिनवल्लभसूरि को अनहिल्लपुर पट्टरण छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा और उन्होंने गुर्जर प्रदेश से मेदपाट की ओर विहार किया । खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली के निम्नलिखित उल्लेख से इस तथ्य की पूर्णतः पुष्टि होती है : "ततो वाचनाचार्यों जिनवल्लभगरिण कतिचित् दिनानि पत्तणभूमौ विहृत्य न तादृशो विशेषेण बोधो विधातु कस्यापि शक्यते, येन सुखमुत्पद्यते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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