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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] जिनवल्लभसूरि [ २५६ उत्तरार्द्ध के लगभग डेढ शतक तक चैत्यवासियों का ही वर्चस्व एवं पूर्ण प्रभुत्व था। इस तथ्य की पुष्टि जिनवल्लभसूरि के जीवन-की इस घटना से ही भली-भांति हो जाती है कि जब उन्होंने भगवान् महावीर के गर्भापहार का छठा कल्याणक किसी जिनमन्दिर में मनाने का निश्चय किया तो चित्तौड़ के किसी भी जिनमन्दिर में उन्हें प्रवेश तक नहीं करने दिया गया। इसी कारण उन्हें चौबीस जिनेश्वरों के चित्रपट को एक गृहस्थ के घर में रखकर छठे कल्याणक का उत्सव मनाना पड़ा। तदनन्तर जब उन्होंने यह देखा कि उन्हें वन्दन-नमन और उनके उपासकों को पूजा अर्चन के लिये चित्तौड़ में कोई जिनमन्दिर उपलब्ध नहीं होने वाला है, क्योंकि सभी जिनालयों पर चैत्यवासी परम्परा का स्वामित्व है तो उन्होंने उपासना के लिए अभिनव जिनमन्दिर के निर्माण करवाने के अपने श्रावक श्राविकाओं के प्रस्ताव का अनुमोदन किया और शीघ्रातिशीघ्र जैसा कि पहले ऊपर बताया जा चुका है, दो तल्ले भवन का निर्माण करवा उसे दो जिनमन्दिरों का रूप प्रदान किया गया। ये सब ऐतिहासिक तथ्य इस बात के द्योतक हैं कि अभयदेवसूरि के जीवनकाल तक चैत्यवासी परम्परा के साथ सुविहित परम्परा का जो सद्भावपूर्ण व्यवहार रहा वह जिनवल्लभसूरि के सुधारवादी अथवा क्रान्तिकारी कार्यकलापों के परिणामस्वरूप संघर्ष में बदल गया। ऐसा प्रतीत होता है कि नवांगी वृत्तिकार अभयदेवसूरि के पास आगमों का अध्ययन कर लेने के पश्चात् जिनवल्लभसूरि ने दृढ़ संकल्प कर लिया था कि वे चैत्यवासी परम्परा द्वारा चारों ओर फैलाये गये शिथिलाचार के दलदल से संघ का उद्धार करके ही विश्राम ग्रहण करेंगे। अपने इस दृढ़ संकल्प के अनुसार उन्होंने चैत्यवासी परम्परा के समूलोन्मूलन का अभियान प्रारम्भ किया और उसके परिणामस्वरूप उन्हें चैत्यवासी परम्परा और सुविहित दोनों ही परम्पराओं के अनुयायियों का कोपभाजन बनना पड़ा। "अद्यैव वा मरणमस्तु, युगान्तरे वा । न्यायात् पथःप्रविचलन्ति पदं न धीराः।" इस सूक्ति को चरितार्थ करते हुए उन्होंने साहस नहीं छोड़ा । गुर्जर प्रदेश में और मुख्यतः अनहिलपुर पत्तन में वे अपने संकल्प का क्रियान्वयन नहीं कर सकेंगे, यह विचार कर जिनवल्लभ गणि ने गुर्जर प्रदेश को छोड़ अन्य क्षेत्रों को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। वे जीवन-भर चैत्यवासी परम्परा से जूझते रहे और चैत्यवासी परम्परा के उन्मूलन और विधि मार्ग के अभ्युत्थान के लिये उन्होंने संघपट्टक जैसी क्रान्तिकारी कृति की संरचना की। संघपट्टक का घोष दिग्दिगन्त में गूंज उठा। संघपट्टक द्वारा प्रकट किये गये युक्तिसंगत तथ्यों से जन-मानस जिनवल्लभ की ओर आकर्षित हुआ। बड़ी संख्या में लोग उनके उपासक बनने लगे। सर्वप्रथम चित्तौड़ नगर में और तदनन्तर देश के विभिन्न नगरों में जिनवल्लभसूरि की प्रेरणा से विधि चैत्यों के निर्माण प्रारम्भ होने लगे। उन विधि चैत्यों में चैत्यवासी परम्परा के विधि-विधान, आचार-विचार, व्यवहार आदि से नितान्त विपरीत निम्नलिखित आज्ञाएं उटैंकित करवा दी गई : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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