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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] जिनवल्लभसूरि
[ २५३ अर्थात् श्री वर्द्धमानसूरि ने चैत्यवासी परम्परा का परित्याग कर श्री उद्योतनसूरि के पास चारित्र ग्रहण किया अर्थात् अभिनव रूप से पंच महाव्रत की दीक्षा ग्रहण की। तदुपरान्त भी वे विषम भोगिक ही रहे, उनके साथ उद्योतनसूरि ने श्रमण परम्परा में प्रचलित बारह प्रकार के सम्भोग एवं पारस्परिक व्यवहार नहीं रखा । इस प्रकार विषम भोगी रहते हुए ही वर्द्धमानाचार्य ने उद्योतनसूरि से आगमों की वाचनाएं ग्रहण की। इस प्रकार विषमभोगी रहते हुए भी वर्द्धमानसूरि अपने शिक्षागुरु उद्योतनसूरि की आज्ञा से विचरण करते रहे। इस भांति न तो उद्योतनसूरि ने वर्द्धमानसूरि को अपनी परम्परा के शिष्य के रूप में और न वर्द्धमानसूरि ने ही उद्योतनसूरि को अपना पूर्वाचार्य विधिवत् स्वीकार किया। यही कारण है कि वर्द्धमानसूरि के सन्तानीय अथवा शिष्य प्रशिष्य अभयदेवसूरि और वर्द्धमानसूरि (द्वितीय) आदि आचार्यों ने तथा उनकी शिष्य सन्तति में नहीं आने वाले जिनवल्लभ ने भी अपनी-अपनी कृतियों की प्रशस्तियों में श्री वर्द्धमानसूरि से ही पट्ट परम्परा के उद्भव का उल्लेख किया हैं । वर्द्धमानसूरि से पूर्व के प्राचार्यों का उन्होंने कोई उल्लेख नहीं किया। इसका कारण यह है कि इनके पूर्वाचार्य तो चैत्यवासी थे और उद्योतनसूरि को ये सब विद्वान् लेखक उद्योतनसूरि की परम्परा से विसम्भोगिक होने के कारण उन्हें (उद्योतनसूरि को) अपना पूर्वाचार्य नहीं लिख सकते थे।
इन पंक्तियों के माध्यम से महोपाध्याय श्री धर्मसागर ने महान् क्रियोद्धारक वर्द्धमानसूरि की उस महती महनीया परम्परा को, जो आगे चलकर खरतरगच्छ के नाम से लोकविख्यात हुई और जिसने चैत्यवासी परम्परा के प्रचार प्रसार एवं वर्चस्व के कारण नितान्त गौण बनी हुई श्रमरण भगवान् महावीर की मूल विशुद्ध परम्परा को पुनः वर्चस्व प्रदान करने में भगीरथ प्रयास तुल्य महान् योगदान किया, मूलतः ही नगण्य एवं विक्रम सम्वत् १०८० के आस-पास अभिनव रूप से संस्थापित परम्परा सिद्ध करने का अपनी ओर से अथक किन्तु वस्तुतः निरर्थक प्रयास किया है ।
खरतरगच्छ परम्परा की आलोचना करने में आलोचना की सीमा को लांघकर उपाध्याय श्री धर्मसागर ने लिखा है :
"सव्वेहि कुवखेहि अ निब्भन्तो खरयरो सहावेणं । जिब्भादोसदुगेणं, भासणभक्खरणसरूवेणं ।।४।। उस्सुत्तं भासित्ता, दिज्जा अलिअंपि सम्मई मूढो । पज्जूसिअ विदलाइ, भक्खंतो भरणइ मुणिमप्पं ।।८५।।'
१. प्रवचन परीक्षा, पृष्ठ ३१६, भाग १
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