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________________ २५२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ परम्परा का अनुयायी श्रमण एवं चैत्यवासी परम्परा के आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि का ही शिष्य बताते हुए लिखा है : "तथा कूर्चपुरगच्छीय चैत्यवासी जिनेश्वरसूरि शिष्यो जिन वल्लभश्चित्रकूटे षट्कल्याणक प्ररूपणया निजमतं प्ररूपितवान् ।"१ अर्थात् कूर्चपुर (कुचेरा) गच्छीय चैत्यवासी आचार्य जिनेश्वरसूरि के शिष्य जिनवल्लभ ने चित्तौड़ में भगवान् महावीर के छ8 कल्याणक की प्ररूपणा कर अपने स्वयं के नये मत को प्रकट किया। इसी प्रकार अज्ञात कर्तृक "श्री गुरु पट्टावली" में भी जिनवल्लभसूरि के लिये इसी प्रकार का उल्लेख किया गया है. जो इस प्रकार है :-"तत्समये कूर्चपुरगच्छीय चैत्यवासी श्री जिनेश्वरसूरि शिष्यो जिनवल्लभ नामा चित्रकूटे षष्ट कल्याणक प्ररूपणया अविधि संघम् स्थापितवान्, तत्सम्प्रदायः खरतर इति व्यवह्रीयते विक्रमात् १२०४ वर्षे जातः ।"२ अर्थात् उस समय कूर्चपुर गच्छ के चैत्यवासी आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि के शिष्य जिनवल्लभ ने चित्रकूट में छः कल्याणकों की प्ररूपणा कर प्रविधि संघ की, (अर्थात् विधि विहीन, अनागमिक अथवा मूल परम्परा से विपरीत संघ की) स्थापना की। श्री जिनवल्लभसूरि का वह सम्प्रदाय विक्रम सम्वत् १२०४ में खरतर नाम से पहिचाना जाने लगा। . तपागच्छ के उपाध्याय श्री धर्मसागर गणि ने अपने खण्डन मण्डनात्मक विशाल ग्रन्थ "प्रवचन परीक्षा" में न केवल जिनवल्लभ को ही अपितु सबसे पहले क्रियोद्धार का शुभारम्भ करने वाले महान् क्रियोद्धारक वर्द्धमानसूरि तक को और उनके द्वारा संस्थापित संविग्न परम्परा अथवा सुविहित परम्परा के अभिन्न प्रमुख अंग खरतरगच्छ तक को मूलतः चैत्यवासी परम्परा के अनुयायी बताते हुए लिखा है : __ "श्री वर्द्धमानाचार्यस्तु चैत्यवासं परित्यज्य श्री उद्योतनसूरि पार्वे चारित्रं गृहीत्वा विषमभोगिक: सन्न व योगानुष्ठानपूर्वकं सूत्रवाचनां गृहीतवान्, परं विहारस्तदाज्ञामात्रेणेति-अतः एव श्री वर्द्धमानसूरि संतानीय श्री अभयदेवसूरि, श्री वर्द्धमानसूरि (द्वितीय) प्रभृतिभिस्तथा तदनपत्य जिनवल्लभेनापि श्री वर्धमानसूरिमवधिकृत्य स्वकृत ग्रन्थ प्रशस्त्यादौ श्री वर्द्धमानसूरि पट्ट परम्परा लिखिता, न पुनस्ततः प्रागपि सूरिमवधिकृत्येति ।'3 १. पट्टावली समुच्चय (सम्पादक मुनि श्री दर्शन विजयजी) पृष्ठ ५४ २. वही, पृष्ठ १६६ ३. प्रवचन परीक्षा, भाग १, पृष्ठ ३०६ (उपाध्याय श्री धर्म सागर द्वारा रचित) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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