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सामान्य श्रृंतधर काल खण्ड २ ]
जिनवल्लभसूरि
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मरुकोट से विहार कर जिनवल्लभसूरि नागपुर-नागौर पधारे और अनेक स्थानों पर विचरण करते हुए देवभद्राचार्य अणहिल्लपुर पट्टण पधारे। वहां उन्होंने विचार किया कि प्रसन्नचन्द्राचार्य ने स्वर्गारोहण से पूर्व मुझे यह कहा था कि जिनवल्लभगरिण को अभयदेव सूरि के पट्ट पर आसीन कर देना। इसके लिए अब उपयुक्त समय है। उन्होंने तत्काल नागपुर-नागौर में स्थित जिनवल्लभगणि के पास एक पत्र भेजा कि वे शीघ्र ही अपने समुदाय के साथ चित्रकूट पहुँच जाएं। वे भी शीघ्र ही वहां आकर अपना अभीप्सित कार्य करेंगे।
तदनुसार दोनों-जिनवल्लभगणि और देवभद्राचार्य अपने-अपने समुदाय के साथ चित्तौड़ पहँच गये । पं० सोमचन्द्र को भी उस समय बुलाया गया था किन्तु वे चित्तौड़ नहीं पहुँच सके । शुभ मुहूर्त देखकर देवभद्रसूरि ने विक्रम सम्वत् ११६७ की आषाढ़ शुक्ला छठ के दिन चित्तौड़ स्थित वीर विधि चैत्य में जिनवल्लभसूरि को नवांगी वृत्तिकार अभयदेवसूरि के पट्ट पर प्राचार्य पद प्रदान किया।
इस प्रकार जिनवल्लभसूरि को अभयदेवसूरि का पट्टधर नियुक्त कर देवभद्राचार्य अपने शिष्य परिवार सहित विभिन्न क्षेत्रों में विचरण करने लगे।
प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने के पश्चात् जिनवल्लभसूरि विधि मार्ग के प्रचार-प्रसार के लिए निरन्तर प्रयास करते रहे, पर सहसा वे रुग्ण हो गये। उन्होंने व्याधि के आकस्मिक आक्रमण को देखकर निमित्त ज्ञान के बल से यह ज्ञात कर लिया कि अब उनका अन्तिम समय आ पहुंचा है। उन्होंने विक्रम सम्वत् ११६७ की कार्तिक वदि दशम के दिन अपने सभी दुष्कृतों की आलोचना कर संथारा किया और नमस्कार मंत्र का निरन्तर जाप करते हुए विक्रम सम्वत् ११६७ की कार्तिक कृष्णा द्वादशी के दिन रात्रि के अन्तिम प्रहर में तीन दिन के अनशन के पश्चात् वे चतुर्थ देवलोक के अधिकारी हुए।
जिनवल्लभसूरि के जीवन वृत्त का यह एक पक्ष है, जिसे यशस्विनी खरतरगच्छ परम्परा की पट्टावली (वृहद् गुर्वावली) के आधार पर संक्षेपतः ऊपर प्रस्तुत किया गया है।
खरतरगच्छ से इतर प्रायः सभी परम्पराओं के विद्वान् लेखकों ने, मुख्यतः तपागच्छ के उपाध्याय श्री धर्मसागर गरिण ने जिनवल्लभसूरि के जीवन वृत्त का, उपरिवरिणत पक्ष से नितान्त विपरीत पक्ष प्रस्तुत किया है । धर्म सागर ने जिनवल्लभ की कटुतम आलोचना करते हुए, उनके द्वारा की गई भगवान् महावीर के छः कल्याणकों की प्ररूपणा के प्रश्न को लेकर उन्हें उत्सूत्र-प्ररूपक की संज्ञा तक से अभिहित कर दिया है । तपागच्छीय महोपाध्याय श्री धर्मसागर गणि ने अपनी “श्रीतपागच्छपट्टावली सूत्रम् स्वोपज्ञ वृत्ति संवेतम्' में श्री जिनवल्लभसूरि को अभयदेवसूरि के शिष्य के रूप में स्वीकार न कर उनके जीवन के अन्तिम क्षणों तक चैत्यवासी
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