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________________ २५४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ तीए पमाण करणे, अपमाणं सासणं समग्गं पि । कायव्वं विवरीया, जेणं दोण्णंपि दो पंथा ॥७०।। जिणवल्लहो असीसो, तेण को दविण दाणेण ।२ खरतरोप्यनंत संसार्यव, तन्मध्ये पतितो जिनप्रभोऽपि म्लेच्छाधिपति-प्रति बोधकोऽपि प्रवचनोपघात्येक, उत्सूत्र भाषिणां प्रवचनोपघातित्वात्........" 3 अर्थात् जितने भी कुपक्ष हैं, उनमें खरतर पक्ष वस्तुतः स्वभाव से ही ढीठ है। भाषण और भक्षण की दृष्टि से जो सबसे बड़े दो दोष होते हैं, उन दोषों से खरतरगच्छ युक्त है । उत्सूत्र अर्थात् सूत्र विरुद्ध प्ररूपणा करके यह मूढ झूठी ही सम्मति देता है। यानि बासी द्विदल आदि को खाकर भी यह अपने आप को मुनि कहता है। यदि खरतरगच्छ को प्रामाणिक मान लिया जाय तो समग्र जिनशासन ही अप्रामाणिक सिद्ध हो जाता है, क्योंकि जिनशासन और खरतरगच्छ ये दोनों एक-दूसरे से विपरीत दिशा की ओर ले जाने वाले भिन्न-भिन्न और परस्पर विरोधी दो मार्ग हैं। कूर्चपुर गच्छीय चैत्यवासी प्राचार्य जिनेश्वरसूरि ने धन देकर जिनवल्लभ को खरीदा और उस क्रय किये हुए बालक को अपना शिष्य बनाया । ये खरतरगच्छ वाले भी अनन्त-अनन्त काल तक संसार में भटकने वाले हैं और इनके बीच में पतित यह जिनप्रभ भी म्लेच्छराज तुगलक मोहम्मद शाह का प्रतिबोधक होते हुए भी निर्ग्रन्थ प्रवचन का उड्डाह अथवा उपघात करने वाला ही है, क्योंकि उत्सूत्रभाषी वस्तुतः निर्ग्रन्थ प्रवचन का उपघात करने वाले ही होते हैं। इस प्रकार विरोध की पराकाष्ठा को पारकर धर्म सागर ने जिनशासन को शिथिलाचारियों के बाहुपाश से उन्मुक्त कराने में सर्वाधिक योगदान करने वाले जिनवल्लभसूरि को प्रविधि मार्ग का संस्थापक, उत्सूत्रभाषी, क्रयक्रीत साधु, चैत्यवासी आदि कुत्सित सम्बोधनों से अभिहित कर वर्द्धमानसूरि और खरतरगच्छ को जिनशासन से नितान्त विपरीत पथ का अनुगामी बताया है। इसके कारणों पर विचार करने से पहले उपाध्याय धर्मसागर के सम्बन्ध में पट्टावली समुच्चय के एक टिप्पण की ओर ध्यान दिलाना परमावश्यक है। उस टिप्पण में धर्मसागर १. प्रवचन परीक्षा, भाग १, विश्राम ४, पृष्ठ ३०६ २. प्रवचन परीक्षा, भाग १, पृष्ठ २३१ ३. वही पृष्ठ ३१६ | ४. पट्टावली समुच्चय, पृष्ठ १७३, टिप्पण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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