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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] जिनवल्लभसूरि [ २४७ पत्र को पढ़ लेने के पश्चात् जिनवल्लभ गरिण ने सस्वर निम्नलिखित आर्या का उच्चारण किया : आसीज्जनः कृतघ्नः क्रियमाणघ्नस्तु साम्प्रतं जातः । इति मे मनसि वितर्को भविता लोकः कथं भविता ॥ अर्थात् अपने ऊपर किये गये उपकार के बदले अपकार करने वाले कृतघ्न लोग तो समय-समय पर युगादि से ही होते चले आ रहे थे । किन्तु आज के इस युग में तो अपने ऊपर किये जा रहे उपकार के बदले अपकार करने वाले क्रियमाणघ्न लोग हो गये हैं यह देखकर मेरे मन में एक दुखभरी आशंका उत्पन्न हो रही है कि अब आगे लोग किस-किस प्रकार के होंगे और इस संसार की कैसी दयनीय दशा बन जायेगी। . इस आर्या का उच्चारण करने के पश्चात् जिनवल्लभ गरिण ने उन दोनों क्रियमाणघ्न शिक्षार्थी कुशिष्यों को सम्बोधित करते हुए कहा :-"बस अब बहुत हो गई वाचना आप लोगों को इस प्रकार की विषबुझी भावना को देखकर।" . __ वे दोनों मुनि तत्काल अपने-अपने बसते वस्त्र पात्र आदि समेट कर द्रुतगति से अपने गुरु मुनिचन्द्राचार्य के पास लौट गये। इस घटना के पश्चात् उन्हें कभी किसी ने चित्तौड़गढ़ में नहीं देखा । जिनवल्लभ गरिण के अन्तर्पोरणाप्रदायिनी उपदेश शैली का एक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावलीकार ने लिखा है :- "बागड प्रान्त का रहने वाला गणदेव नामक एक श्रावक यह जानकर कि जिनवल्लभगणि के पास स्वर्णसिद्धि की विधि है, विपुल स्वर्ण प्राप्ति की इच्छा से चित्तौड़गढ़ में उनकी सेवा में आया और उनकी अहर्निश उपासना करने लगा। जिनवल्लभ गणि ने उस श्रावक के मनोभावों को किसी प्रकार जान लिया। उन्होंने अनुभव किया कि यह व्यक्ति वस्तुतः बड़ा ही सुयोग्य है। यदि इसे धर्म की शिक्षा देकर धर्म के प्रचार-प्रसार के कार्य में लगा दिया जाय तो लोगों का बड़ा उपकार हो सकता है । यह विचार कर वे उसे धार्मिक ज्ञान के साथ-साथ इस प्रकार के उपदेश देने लगे जिनसे कि उसके अन्तर्मन में अनासक्ति परक संविग्न भाव, वैराग्य भाव उत्पन्न हो जाय । जिनवल्लभ गरिग की अमोध एवं अद्भुत उपदेश शैली का ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह गणदेव श्रावक स्वर्ण सिद्धि के प्रति उदासीन हो सांसारिक कार्यकलापों से विरक्त एवं अनासक्त हो गया । गणदेव श्रावक के उत्कट अनासक्ति और संविग्नभाव को देख कर एक दिन जिनवल्लभगणि ने उससे कहा :-"सौम्य । क्या मैं तुम्हें स्वर्णसिद्धि बताऊं?" गणदेव श्रावक ने कहा :-"भगवन् ! मुझे स्वर्णसिद्धि अथवा स्वर्ण से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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