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________________ २४६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ सही, यह दरिद्री द्रमुक देवमन्दिरों का निर्माण करवाएंगे और राजमान्य हो जाएंगे ।” चैत्यवासी श्रावकों की यह बात जिनवल्लभ गरिए के कानों तक पहुंची। शौच निवृत्ति हेतु बहिर् भूमि की ओर जाते समय जिनवल्लभ गरिए को श्रेष्ठि प्रह्लादन मिला । जिनवल्लभ गरिग ने उससे कहा - "देखो भद्र ! तुम्हें इस प्रकार की गर्वोक्ति नहीं कहनी चाहिये । इन नये उपासक श्रावकों में से भी कोई न कोई श्रावक राजमान्य श्रेष्ठि होगा और वह तुम्हें राजपुरुषों के बन्धन से छुटकारा दिलवाएगा ।" कालान्तर में जिनवल्लभ गरिण की यह भविष्यवारणी फलीभूत हो गई । प्रह्लादन श्रावक को किसी अपराध में दण्डनायक ने पकड़ कर उसके हाथों में हथकड़ियां डाल दीं । जब जिनवल्लभ गरिग के प्रमुख श्रावक साधारण को यह बात ज्ञात हुई तो उसने अपने प्रभाव से प्रह्लादन को बन्धनों से मुक्त करवाया । अपने निश्चय के अनुसार जिनवल्लभ गरिण के श्रावकों ने एक विशाल भवन का निर्माण करवाया और उसकी दोनों मंजिलों में दो जिन मन्दिर बनवाये । बड़े ठाठ-बाठ से उन श्रावकों ने उन दोनों मन्दिरों में मूर्तियों की जिनवल्लभ गरिण के हाथों प्रतिष्ठा करवाई। इससे जिनवल्लभ गरिए की कीर्ति दिग्दिगन्त में फैल गई कि वस्तुतः गुरु हों तो ऐसे हों । खरतरगच्छ् वृहद् गुर्वावलीकार ने जिनवल्लभ गरिए के जीवनवृत्त में उनके ज्योतिष विज्ञान के प्रकांड पांडित्य पर प्रकाश डालते हुए उनके एतद्विषयक चमत्कारों का भी वर्णन किया है । वृहद् गुर्वावली में उल्लेख है कि एक समय मुनिचन्द्राचार्य ने अपने दो शिष्यों को आगमों की वाचना ग्रहण करने के लिये जिनवल्लभ गरिए के पास भेजा । जिनवल्लभ गरिग ने उनको आगमों की वाचना देना प्रारम्भ किया । वे दोनों श्रागम शिक्षार्थी भी जिनवल्लभ गरिण के श्रावकों को अपने पक्ष में करने के लक्ष्य से उनका अनेक प्रकार से मनोरंजन करने लगे । एक दिन मुनि चन्द्र के उन दोनों शिष्यों ने अपने गुरु के नाम एक पत्र लिखा । उस पत्र को वाचना ग्रहण करने के बसते में डालकर वे दोनों विद्यार्थी मुनि जिनवल्लभ गरिण की वसति में गये । वे दोनों जिनवल्लभ गरिए को वन्दन करने के पश्चात् उनके समक्ष बैठ गये । वाचना ग्रहण करने के लिये ज्यों ही उन्होंने बसते को खोला तो उनका वह पत्र बाहर गिर गया । अभिनव लेखन को देखकर जिनवल्लभ गरिण ने उस पत्र को उठाकर पढ़ना प्रारम्भ कर दिया । वे दोनों विद्यार्थी मुनि अवाक् एवं प्रवश हो देखते ही रह गये । जिनवल्लभ गरि के हाथ में से उस पत्र को छीन लेने का तो उनमें साहस नहीं था । जिनवल्लभ गरिण ने उनके उस पत्र को पढ़ा जिसमें लिखा हुआ था :- " - "जिनवल्लभ गरि के कतिपय श्रावकों को हमने अपने वश में कर लिया है । सभी श्रावकों को हम वश में कर सकेंगे ऐसी हमारी धारणा है ।" शनैः शनैः इनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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