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________________ २४८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ अब कोई प्रयोजन नहीं है । मैं तो आपके मुखारविन्द से यह नियम ग्रहरण करना चाहता हूं कि बीस द्रम्म से मैं व्यापार कर अपना जीवन निर्वाह करूंगा और अधिकाधिक समय तक श्रावक धर्म के कर्त्तव्यों का निर्वहन करता रहूंगा ।" कुछ समय तक जिनवल्लभ गरिण की सेवा में उसने धार्मिक ज्ञान के साथसाथ धर्म का प्रचार करने की कला भी अपने गुरु से सीख ली। इस प्रकार उसे धार्मिक ज्ञान का प्रशिक्षण दे जिनवल्लभ गरिण ने धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु बागड़ देश में भेज दिया । धर्मोपदेश देने की कला में गरणदेव श्रावक निष्णात हो गया था । बागड देश के गांव-गांव, नगर-नगर और डगर-डगर में घूम-घूम कर उसने लोगों में धर्म का प्रचार-प्रसार करना प्रारम्भ किया और थोड़े ही समय में बागड देश के निवासियों को बड़ी संख्या में जिनवल्लभ गरिण का उपासक बना दिया । उनके काव्य-रचना कौशल का दिग्दर्शन कराते हुए गुर्वावलीकार ने लिखा है कि जिनवल्लभग़रिण का व्याख्यान सुनने के लिये प्रायः प्रतिदिन अनेक विद्वान्, विचक्षरण पुरुष और विशेषत: ब्राह्मरण पंडित अपने-अपने मन की शंकाओं को मिटाने के उद्देश्य से आया करते थे । एक दिन व्याख्यान देते समय प्रसंगवशात् उन्होंने 'धिज्जाईरण माहणं' ( धिग्जातीया ब्राह्मणा ) इस गाथा का विवेचन किया । 'धिग्जातीया ब्राह्मणाः ' यह सुनते ही सब ब्राह्मण रुष्ट होकर व्याख्यान-स्थल से उठकर बाहर चले गये । वे सब एक स्थान पर एकत्रित हुए, जिनबल्लभग रिण के विपक्षी लोग भी उन ब्राह्मणों में जाकर सम्मिलित हो गये । वे सब के सब क्रोधाभिभूत हो कहने लगे :- "हम जिनवल्लभ के साथ शास्त्रार्थ कर उसे पराजित एवं लज्जित करेंगे ।" जिनवल्लभग रिण को जब यह सब वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो उन्होंने एक पत्र पर निम्नलिखित श्लोक लिखकर अपने एक विश्वस्त विवेकी श्रावक के साथ यह कहकर उन ब्राह्मणों के पास भेजा कि उन ब्राह्मणों में जो सबसे अधिक प्रभावशाली वृद्ध ब्राह्मरण हो उसके हाथ में यह पत्र दे देना । उस उपासक ने उन ब्राह्मणों के समूह में जाकर एक प्रतिभाशाली वयोवृद्ध ब्राह्मण पंडित के हाथ में वह पत्र दे दिया । उस श्लोक को वयोवृद्ध ब्राह्मण ने बड़े ध्यान से पढ़ा और अन्य सब विद्वानों को वह श्लोक सुनाते हुए उन्हें परामर्श दिया :-' - "हमें यहां विवेक से काम लेना चाहिए। हम सब लोग वस्तुतः एक-एक विद्या के ही विज्ञ हैं लेकिन यह जैन महामुनि जिनवल्लभ तो सब प्रकार की विद्याओं में निष्णात हैं । ऐसी दशा में हम सब मिलकर भी उनके साथ शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करना तो दूर, शास्त्रार्थ में क्षण भर के लिये भी उनके समक्ष टिक नहीं सकेंगे । अतः उनके साथ संघर्ष में न उतर कर उनके गुणों से, उनके अगाध ज्ञान से लाभ उठाना ही हम सबके लिए श्रेयस्कर है ।" अपने वयोवृद्ध विद्वान् के इस सत्परामर्श से उन सब ब्राह्मण विद्वानों का क्रोध शांत हुआ और वे सब अपने-अपने स्थान की ओर चले गये। जिनवल्लभसूरि द्वारा बनाया हुआ वह श्लोक इस प्रकार है : Jain Education International मर्यादाभंगभीतेरमृतमयतया धैर्यगांभीर्ययोगान् न क्षुभ्यन्त्येव तावन्नियमितसलिलाः सर्वदैते समुद्राः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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