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पूर्व पीठिका ]
स्वर्गस्थ हुए अन्तिम श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु के जीवन की
घटनाओं के साथ भ्रांतिवश संपृक्त कर दिया गया है। ५. वीर निर्वाण सम्वत् २४५ में दशपूर्वधर आर्य महागिरि के स्वर्गस्थ
होने के पश्चात् जैन संघ में गणाचार्य तथा वाचनाचार्य इन दो आचार्य परम्पराओं के प्रादुर्भाव और तत्पश्चात् कालान्तर में तीसरी आचार्य परम्परा, युग प्रधानाचार्य परम्परा के उद्भव के कारण शताब्दियों तक युग प्रधानाचार्य, वाचनाचार्य और गणाचार्य इन तीनों प्राचार्य परम्पराओं के सम सामयिक काल में प्रचलित रहने का युक्तिसंगत ऐतिहासिक तथ्यों से पूर्णत: परिपुष्ट और जन-जन के मन का समाधान करने वाले ऐसे ऐतिहासिक तथ्यों पर पूर्ण प्रकाश डालकर असाधारण से असाधारण मेधा-सम्पन्न विज्ञ को भी उलझन भरे ऊहापोह में डालने वाली जटिल समस्या का सही हल निकाल लिया गया है। द्वितीय भाग में जो एक हजार वर्ष का इतिहास लिखा गया है उसके लेखन में नन्दि स्थविरावली और कल्पसत्रीया स्थविरावलि इन दो स्थविरावलियों को मूल आधार माना गया है। मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई में जो वहां के अति प्राचीन जैन स्तूप से निकले अठारह सौ से उन्नीस सौ वर्ष पुराने शिलालेख, प्रयागपट्ट, मतिलेख अादि मिले हैं उनमें कल्प सूत्रीया स्थविरावलि के छः गणों में से तीन गणों, चार गणों के बारह कुलों तथा दस शाखाओं के एवं नन्दीसूत्रीया स्थविरावलि के पन्द्रहवें वाचनाचार्य आर्य समुद्र, सोलहवें आर्य मंगू, इक्कीसवें आर्य नन्दिल, बावीसवें आर्य नागहस्ति और चौबीसवें वाचनाचार्य भूतदिन के नाम उट्ट कित हैं । आज से लगभग दो सहस्राब्दि पूर्व के इन शिलालेखों ने आर्य सुधर्मा से प्रारम्भ हुई जैन श्रमण संघ की इन दोनों स्थविरावलियों को संसार के समक्ष पूर्णतः प्रामाणिक और परम विश्वसनीय सिद्ध कर दिया है । ____ इस प्रकार नन्दी स्थविरावलि और कल्पसूत्रीया स्थविरावलि के आधार पर लिखा गया यह इतिहास १८००-१६०० वर्ष पूर्व के ऐतिहासिक अभिलेखों से पूर्णतः परिपुष्ट होने के कारण परम
प्रामाणिक सिद्ध हुआ है। ७. दूसरे भाग के लेखन हेतु शोधकार्य करते समय मथुरा के पुरातात्विक
संग्रहालय में उपलब्ध जैन इतिहास से सम्बन्धित मथुरा के कंकाली
१.
जैनधर्म का मौलिक इतिहास भाग २ पृष्ठ ४६८-७१
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