________________
१.
j
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
नाम साम्य की भ्रान्ति और इतने बड़े सम्राट् द्वारा जैन श्रमरण धर्म की दीक्षा ग्रहण की बात के माध्यम से अपने धर्म संघ की महानता तथा महिमा सिद्ध करने के उद्देश्य से विक्रम की छठी शताब्दी में हुए भद्रबाहु नामक आचार्य और उनके शिष्य चन्द्रगुप्ति की दक्षिरण विहार की घटना को वीर निर्वारण की दूसरी शताब्दी के उत्तरार्द्ध के द्वितीय शतक में हो अर्थात् वीर निर्वारण सम्वत् १६३ अथवा दूसरी मान्यतानुसार वीर निर्वारण सम्वत् १७० में स्वर्गस्थ हुए चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु के साथ जोड़ दिया गया है ।
श्रमणबेलगोल में बाहुबली की विश्वविख्यात विशाल मूर्ति के पार्श्व में अवस्थित चन्द्रगिरि नामक एक पहाड़ी पर पार्श्वनाथ वसति का एक शिलालेख आज भी विद्यमान है, जिस का सारांश इस प्रकार है
——-
" सूर्य के समान भगवान् महावीर के निर्वारण के पश्चात् उनके पट्ट पर गौतम लौहार्य ( सुधर्मा ), जम्बू, विष्णु, अपराजित, गोवर्द्धन, अन्तिम चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु, विशाख, प्रोष्ठिल, कृतिकाय, जय, सिद्धार्थ, धृतिषेरण, बुद्धिल आदि गुरु परम्परा के क्रम में महापुरुषों की शिष्य सन्तति को प्रकाशित करने वाले अष्टांग महानिमित्त को जानने वाले भद्रबाहु नामक आचार्य ने उज्जयिनी में भूत, भविष्य श्रीर वर्तमान की घटनाओंों को बतला देने वाले निमित्त ज्ञान से बारह वर्ष के भावी दुष्काल को जानकर सब संघ को सूचित किया और संघ उनके साथ उत्तरापथ से दक्षिणापथ की ओर प्रस्थित हुआ । वे अपने संघ के साथ अन्न-जन-धन-धान्य- वृक्ष - लता - गुल्मादि से सम्पन्न दक्षिण देश में आये। उन भद्रबाहु नामक श्राचार्य ने चन्द्रगिरि की इस गुफा में अनशन एवं समाधिपूर्वक स्वर्ग-गमन किया । ..............
इस प्रकार इस ग्रन्थमाला के द्वितीय भाग में ठोस आधार पर यह सिद्ध कर दिया गया है कि एकादशांगी के विच्छेद के अनन्तर हुए भद्रबाहु नामक प्राचार्य और उनके सुशिष्य चन्द्रगुप्ति के जीवन से सम्बन्धित घटना को वीर निर्वारण सम्वत् १६३ अथवा १७० में
महावीर सवितरि परिनिर्वृ ते भगवत्परमर्षि गौतम गणधर साक्षाच्छिष्य लोहार्य - जम्बुविष्णुदेवापराजित गोवर्द्धन भद्रबाहु विशाखप्रोष्ठिलकृति कायजयनाम सिद्धार्थघृतिषेणबुद्धिलादि गुरुपरम्परीण वक्र (क) माम्यागत महापुरुष संततिसमवद्योतितान्वय-भद्रबाहुस्वामिना उज्जयन्यामष्टांगमहानिमित्ततत्वज्ञेन त्रैकाल्यदर्शिना निमित्तेन द्वादशसंवत्सरकालवैषम्यमुपालभ्य कथिते सर्व्वसंघ उत्तरापथाद्दक्षिणापथं प्रस्थितः ।
- पार्श्वनाथ वस्ति का शिलालेख |
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org