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पूर्व पीठिका ]
इस प्रकार रणनीति में सक्रिय सफलता प्राप्त करने के अनन्तर अपनी सैन्य शक्ति को बढ़ाकर अपने गुरु चाणक्य के तत्वावधान में सीधे मगध की राजधानी पाटलीपुत्र पर आक्रमण कर चन्द्रगुप्त ने मगध साम्राज्य के सिंहासन पर अधिकार करने का दुःसाहस किया था।
सिकन्दर के सम्भावित प्राक्रमण की आशंका से नवम नन्द . ने पहले से ही अपनी शक्तिशाली सेना को सभी भांति और अधिक शक्तिशाली बना लिया था। इस कारण नवम नन्द और चन्द्रगुप्त की सेनाओं के बीच हुए उस युद्ध में चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना पूर्ण-रूपेण नष्टभ्रष्ट अथवा अस्त-व्यस्त हो गई। केवल चन्द्रगुप्त और चाणक्य-ये दो गुरुशिष्य ही उस युद्ध में बचे और वे येन-केन-प्रकारेण लुकते-छिपते एवं भयंकर वनों तथा दुर्गम पर्वतों में भटकते-भटकते बड़ी कठिनाई से अपने प्राण बचाकर मगध साम्राज्य की सुविशाल सीमानों से बाहर निकलने में सफल हो सके। चाणक्य ने येन-केन-प्रकारेण पुनः एक विशाल सेना संगठित करके उस समय के एक अन्य राज्य के अधिपति राजा पर्वतके की सेनाओं के साथ मिलकर दूसरी बार मगध पर प्राक्रमण किया। इस बार मगध की सुदूरवर्ती सीमाओं पर पहले अधिकार करते हुए शनैः शनैः क्रमशः मगध के सीमावर्ती बहुत बड़े भाग पर अधिकार कर लेने के पश्चात् चन्द्रगुप्त ने पाटलीपुत्र पर आक्रमण किया। इससे उसे पूर्ण सफलता प्राप्त हुई और नन्द राज्य का अंत कर वह मगध साम्राज्य के सिंहासन पर बैठा। इस प्रकार वीर निर्वाण की तीसरी शताब्दी के द्वितीय दशक में चन्द्रगुप्त ने मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। एक राज सत्ता विहीन महत्वाकांक्षी सेनानी को एक शक्तिशाली सेना गठित करने और उस सेना के मूलतः नष्ट हो जाने पर एक विशाल एवं महाशक्तिशाली साम्राज्य पर अधिकार करने के लिए दूसरी शक्तिशाली सेना सुगठित करने में दस पन्द्रह वर्ष का समय लगना हर दृष्टि से सहज स्वाभाविक लगता है।
. इन सब ऐतिहासिक तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर स्पष्ट रूप से यह तथ्य प्रकाश में आता है कि मुख्यतः दिगम्बर परम्परा के साहित्य में और साधारणतः श्वेताम्बर परम्परा की परवर्तीकाल की कृतियों में सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के सोलह स्वप्नों और श्रुतकेवली भद्रबाहु के पास चन्द्रगुप्त के दीक्षित होने तथा दुभिक्ष की अवस्था में दक्षिण की ओर विहार करने के जो उल्लेख उपलब्ध होते हैं, उनमें तथ्य का कहीं कोई लवलेश भी दृष्टिगोचर नहीं होता।
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