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________________ [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ यूनान और विश्व के इतिहास से यह निर्विवाद रूप से सिद्ध है कि सिकन्दर ने ईस्वी सन् पूर्व ३२७ (वीर निर्वाण सम्वत् २००) में भारत पर प्राक्रमण किया। उस समय राजा पुरु ने सिकन्दर से सन्धि होने के पश्चात् कहा था कि यदि तुम सम्पूर्ण भारतवर्ष पर अधिकार करना चाहते हो तो मगध साम्राज्य पर आक्रमण कर दो। मगध का राज्य एक बड़ा ही शक्तिशाली राज्य है। किन्तु उसके सम्राट् नवम नन्द को वहां की प्रजा नापितपुत्र मानती है और उससे घृणा करती है। इस कारण तुम एक कड़ी लड़ाई के पश्चात् मगध साम्राज्य पर अपना आधिपत्य स्थापित कर सकते हो । मगध के सिंहासन पर अधिकार कर लेने के पश्चात् तुम्हारी विजयिनी सेनाओं को रोकने वाली अन्य कोई राज्य-शक्ति नहीं रहेगी। चन्द्रगुप्त मौर्य, जो उस समय किशोरावस्था में ही था और भारत के एक विख्यात रणनीति विशारद गुरु के पास तक्षशिला में रणनीति की शिक्षा ग्रहण कर रहा था, भी यूनानी रणनीति के भेद से अवगत होने के लक्ष्य से सिकन्दर से मिला था। वह थोड़े समय के लिए सिकन्दर की सेना में भी रहा । उस समय चन्द्रगुप्त ने भी सिकन्दर को मगध पर आक्रमण करने का परामर्श देते हुए वही बात कही जो कि राजा पुरु ने सिकन्दर से कही थी। विश्व और यूनान के इतिहास के इन दो उल्लेखों से यह स्पष्टतः प्रमाणित होता है कि वीर निर्वाण सं० २०० के व्यतीत हो जाने तक मगध पर नवम नन्द का ही साम्राज्य था । ईस्वी पूर्व ३२३ तद्नुसार वीर निर्वाण सम्वत् २०४ में सिकन्दर युद्ध में स्वयं पाहत होने तथा अपनी सेनाओं की भारी क्षति के परिणामस्वरूप सैनिकों में विद्रोह फैलने की आशंका से अपनी सेना के साथ अपने देश को लौट गया। सिकन्दर के प्रधान सेना-नायकों के उल्लेखानुसार चन्द्रगुप्त मौर्य ने चोरों और लुटेरों की एक छोटी सी सेना जुटाकर सिकन्दर की सेनाओं से युद्ध भी किया था। उस युद्ध में चन्द्रगुप्त एक प्रति विशालकाय जंगली हाथी पर आरूढ़ हो अपनी तथाकथित चोरलुटेरों की सेना में सबसे आगे रहकर यूनानियों से लड़ा था। सिकन्दर के स्वदेश की ओर लौट जाने के पश्चात उसके द्वारा विजित भारतीय क्षेत्रों में यूनानी शासन के विरुद्ध विद्रोह की आग भड़का कर और अपनी सैन्य शक्ति के बल पर यूनानियों की प्रायः सभी क्षत्रपियों को चन्द्रगुप्त ने नष्ट कर दिया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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