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________________ दक्षिण में जैन संघ पर.... [ २३१ “पिंगलवत्सरे मकर शुक्ल पुनर्वसु सुदिने वयं यदा इदानीं श्री रंग प्रति प्रस्थिताः तदानी अस्मत् वैष्णव प्रमुखान् प्रति प्राज्ञप्तम्, किमिति चेत् अस्या यदुग़िर्याः समीपस्थ शैवालयं तत्समीपस्थं जैनालयं तेषां धर्मं च परस्पर सौहार्देन पालयितव्यम् । यदुक्तम् परस्परं भावयन्त श्रेयः परमवाप्स्यथ 1 इति भवद्भिर्वर्तितव्यम् । नमो नमो यमुनाय, यामुनाय नमो नमः । सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ 1 लिंगायतों द्वारा जैन धर्मावलम्बियों के विरुद्ध जो संहारक अभियान कलचुरी महाराज बिज्जल के राज्यकाल में ईस्वी सन् १९३०-३५ के आसपास प्रारम्भ किया गया वह ईसा की पन्द्रहवीं, सोलहवीं शताब्दी तक कई चरणों में चलता रहा । यद्यपि कलचुरी महाराजा बिज्जल की जहर प्रयोग द्वारा हत्या और लिंगायत अभियान के प्रमुख नेता श्री बसवा की मुत्यु के पश्चात् लिंगायत सम्प्रदाय के अभियान ने एक भयंकर धर्मक्रान्ति का रूप धारण कर लिया था तथापि तमिलनाडु की भांति आन्ध्र में वह धर्मक्रान्ति अपने प्रथम चरण में जैनों के अस्तित्व को नहीं मिटा सकी । इस बात की पुष्टि निम्नलिखित तथ्यों से होती है : इरामानुशन्” ( रामानुजाचार्य ) कारक (दक्षिण कन्नड़) की पहाड़ी पर ४१ फीट ५ इंच ऊंचाई की और ८० टन (८०० क्विण्टल अर्थात् २००० मन से भी अधिक ) भार की भारी भरकम मूर्ति का निर्माण विद्यानगर ( इक्केरी घाट के पास ) के सामन्त राजा वीर पाण्ड्य ने अपने जैन गुरु ललितकीर्ति के परामर्शानुसार शक सम्वत् १३५३ (विक्रम सम्वत् १४८८) में करवाया । वीर पाण्ड्य वस्तुतः बड़ा कट्टर जैन धर्मावलम्बी था । किन्तु वीर पाण्ड्य की मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारी जैन धर्म का परित्याग कर लिंगायत सम्प्रदाय के अनुयायी बन गये और उन्होंने दक्षिण कर्नाटक में जैनधर्म का अस्तित्व तक मिटाने के बड़े प्रबल प्रयास किये । इस सम्बन्ध में ए.सी. बरनेल एम. सी. एस. एस. आर. ए. एस. ने लिखा है : "There is every reason to believe that the Jains were for long the most numerous and most influential sect in the Madras Presidency, but there are now few traces of them except in the Mysore and Kanara country; and in the South Kanara district, though still numerous, they are fast becoming extinct. Their shrines are still kept up in South Kanara, and the priesthood, members of which are distinguished by the title ‘Indra' are numerous, if not well informed. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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