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________________ २ | जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ यह तथ्य इतिहास - प्रेमियों के समक्ष प्रकाश में आ गया है कि श्रीकृष्ण वस्तुत: भगवान् अरिष्टनेमि के चचेरे भाई थे । ' साथ ही भारतीय इतिहास के विषय में गहन रुचि के साथ शोध करने वाले पाश्चात्य विद्वानों को इस बात की आशंका थी कि ईसा से सातवीं शताब्दी पूर्व जैन परम्परा के तेवीसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ के तीर्थंकर काल में काशी (वाराणसी) में इक्ष्वाकु वंश का राज्य नहीं, बल्कि शिशुनाग वंश के राजा काकवर्णी का शासन था; जबकि जैनागमों में इस प्रकार का स्पष्ट उल्लेख है कि भगवान् पार्श्वनाथ का जन्म काशी के इक्ष्वाकु वंशी महाराजा अश्वसेन की महाराणी वामदेवी की कुक्षि से हुआ था । इस विषय में भी गहन शोध के अनन्तर वैदिक परम्परा के पुराणों और अन्य ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध कर दिया गया है कि भगवान् पार्श्वनाथ के दीक्षित हो जाने के अनन्तर एवं उनके पिता काशी के इक्ष्वाकु वंशीय राजा अश्वसेन के स्वर्गारोहरण के अनन्तर काशी का राज सिंहासन उनके किसी उत्तराधिकारी के अभाव में कतिपय वर्षों के लिये रिक्त रहा। इस प्रकार की अराजकतापूर्ण स्थिति का अन्त करने के लिये काशी राज्य की प्रजा ने शिशुनाग नामक योद्धा को आमन्त्रित किया और उसे काशी के राज सिंहासन पर सीन कर दिया | 3 इस प्रकार इस ग्रन्थमाला के प्रथम पुष्प में प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव से लेकर चरम तीर्थंकर श्रमरण भगवान् महावीर के निर्वारणकाल तक का जैनधर्म का और उसके साथ ही साथ भारत के तत्कालीन राजनैतिक एवं सामाजिक इतिवृत्त का संक्षेप में ब्यौरा प्रस्तुत किया गया है । उस अवधि के जैनधर्म के इतिहास को अथवा तीर्थंकर काल के इतिहास को जैनधर्म के स्वरिणम काल के इतिहास की संज्ञा दी जाती है । इस ग्रन्थमाला के द्वितीय भाग में श्रमण भगवान् महावीर के निर्वाण से उत्तरवर्ती काल का, वीर निर्वाण सम्वत् एक से वीर निर्वारण सम्वत् एक हजार तक का जैनधर्म का इतिहास प्रस्तुत किया गया है । इसमें जैनधर्म के इतिहास के साथ-साथ एक हजार वर्ष का भारत का राजनैतिक और यथाशक्य सामाजिक इतिवृत्त भी क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत किया गया है । इस अवधि के जैनधर्म के इतिहास को केवली काल, चतुर्दश पूर्वधर काल, दश पूर्वघरकाल, और सामान्य पूर्वघरकाल इन चार वर्गों में विभक्त किया गया है । उसमें केवली काल की अवधि ६४ वर्ष की, चतुर्दश पूर्वधर काल की अवधि वीर निर्वारण सम्वत् ६४ से १७० तक ( १०६ वर्ष ) की, दश पूर्वधरकाल की अवधि वीर निर्धारण सम्वत् १७१ से वीर निर्वारण सम्वत् १. जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग १, पृष्ठ ४३१-४३८ २. देखिये जैनधर्म का मौलिक इतिहास भाग २, पृष्ठ २५३-२५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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