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________________ १६० 1 [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ अन्यत्र कहीं पर उपलब्ध नहीं हाता । अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि उक्त गुर्वावली में सूराचार्य को पूर्ववर्त्ती तथा द्रोणाचार्य को उत्तरवर्ती प्राचार्य बताया है। और प्रभावक चरित्र में सूराचार्य को द्रोणाचार्य का शिष्य बताया गया है, इस प्रकार की स्थिति में इन दोनों उल्लेखों में से किसे प्रामाणिक माना जाये । इस सम्बन्ध में सूराचार्य और द्रोणाचार्य के समय के ऐतिहासिक तथ्यों, तिथिक्रमों पर विचार करने से ही सर्वसम्मत निर्णय पर पहुँचा जा सकता है । खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली के उल्लेखानुसार गुर्जर नरेश दुर्लभराज की विद्यमानता पाटण नगर में चैत्यवासी सभी आचार्यों का वसतिवासी आचार्य वर्द्धमानसूरि एवं उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि के साथ शास्त्रार्थ हुआ । उन चैत्यवासी आचार्यों में प्रधान आचार्य का नाम सूराचार्य था । सूराचार्य को और उनके साथ आये हुए सभी चैत्यवासी प्राचार्यों को जिनेश्वरसूरि ने शास्त्रार्थ में पराजित किया और इस प्रकार गुर्जर प्रदेश की राजधानी अनहिलपुर पट्टण में वसतिवास की स्थापना हुई। यह ऐतिहासिक घटना अनहिलपुरपत्तन के चालुक्यवंशी राजा दुर्लभसेन के राज्यकाल की है । दुर्लभसेन का राज्य शिलालेखों एवं ताम्रपत्रों के आधार पर इतिहासज्ञों द्वारा ईस्वी सन् १०१० से १०२२ - २३ तदनुसार वि. सं. १०६७ से १०७९-८० तक निश्चित किया गया है। दोनों परम्पराओं के आचार्यों का यह शास्त्रार्थ दुर्लभराज के सान्निध्य में हुआ था । महाराजा दुर्लभराज ने बाद में विजयी हुए वर्द्धमानसूरि, जिनेश्वरसूरि आदि वसतिवासियों को पाटण नगर में रहने और धर्म का प्रचार करने की अनुज्ञा के साथ-साथ रहने के लिये करहट्टी नामक वसति भी प्रदान की । इस ऐतिहासिक काल गणना के अनुसार सूराचार्य का समय अथवा उनका अस्तित्व विक्रम सं. १०८० तक का निस्संशय रूप से निश्चित हो जाता है । सूराचार्य के समय के सम्बन्ध में इस प्रकार के सुनिश्चित निर्णय के अनन्तर द्रोणाचार्य के समय पर विचार करना परमावश्यक हो जाता है । अभयदेवसूरि और द्रोणाचार्य दोनों समकालीन और एक दूसरे के प्रति पूर्ण सौहार्दभाव रखने वाले आचार्य थे | अभयदेवसूरि ने स्थानाङ्गवृत्ति का निर्माण वि. सं. १९२० में किया। उस वृत्ति का संशोधन द्रोणाचार्य ने किया । इसके साथ ही अभयदेवसूरि द्वारा वि. सं. १९२० में निर्मित ज्ञाताधर्म कथाङ्गवृत्ति का संशोधन भी प्राचार्य द्रोण ने किया । इस सभी भांति परिपुष्ट ऐतिहासिक तथ्य से द्रोणाचार्य की सत्ता वि सं. ११२० की सिद्ध होती है । इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि वि. सं. १०८० में सूराचार्य चैत्यवासी परम्परा के प्रधान आचार्य थे और उनके ४० वर्ष पश्चात् चैत्यवासी परम्परा के प्रधानाचार्य पद पर द्रोणाचार्य विद्यमान थे । इससे सहज ही यह सिद्ध हो जाता है कि सूराचार्य द्रोणाचार्य से पूर्ववर्ती आचार्य थे और सम्भवतः द्रोणाचार्य के 'गुरु भी । सूराचार्य पाटण में वर्द्धमानसूरि और जिनेश्वरसूरि के समय में विद्यमान थे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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