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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड-२ ] द्रोणाचार्य [ १६१ और उनके ४० वर्ष पश्चात् उनके प्रधानाचार्य पद पर विद्यमान आचार्य द्रोण वस्तुतः वर्द्धमानसूरि के प्रशिष्य अभयदेवसूरि के समय में विद्यमान थे । ___इन उपरिलिखित ऐतिहासिक तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर प्रभावक चरित्रकार द्वारा सूराचार्य को जो द्रोण का शिष्य अथवा द्रोण को सूराचार्य का गुरु बताया गया है, उसकी ऐतिहासिक तथ्यों से पुष्टि नहीं होती और इतिहास में अभिरुचि रखने वाले विज्ञों को प्राचार्य द्रोण के सम्बन्ध में यह मानने में कोई आपत्ति नहीं होगी कि वे क्षत्रियकुल में उत्पन्न हुये थे और गुर्जरेश्वर महाराजा भीम (प्रथम) के मामा .. __आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपनी कृति प्रभावक चरित्र की प्रशस्ति में इन शब्दों में स्वीकार किया है :-"आर्य वज्र के पश्चाद्वर्ती जिन-जिन आचार्यों के जीवन चरित्र प्रस्तुत किये हैं, उनमें से कतिपय प्राचार्यों के जीवन चरित्र प्राचीन ग्रन्थों से, कतिपय प्राचार्यों के जीवन चरित्र वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध स्थविरों, श्रुतधरों के मुख से सुनकर और कतिपय प्राचार्यों के जीवनवृत्त इधर-उधर से संकलितएकत्रित कर लिखे हैं, क्योंकि वर्तमान युग में पूर्वाचार्यों के जीवन चरित्र वस्तुतः दुष्प्राप्य हैं । लिखित अथवा कर्ण-परम्परा से जो कुछ उपलब्ध हो सका है, उन सब को मिला कर उन जीवन चरित्रों को लिखा है, जो खण्ड विखण्ड में इधर-उधर बिखरे हुए थे।"। इस प्रकार आचार्य प्रभाचन्द्रसूरि ने स्वीकार किया है कि उन्होंने कतिपय आचार्यों के जीवन चरित्र कर्णपरम्परा से सुनकर लिखे हैं। संभव है सूराचार्य का जीवनवृत्त लिखते समय कर्णपरम्परा से चले आ रहे इस कथानक को किसी वयोवृद्ध से सुना हो और उस आधार से सूर आचार्य को द्रोणाचार्य का -शिष्य लिख दिया हो। कर्णपरम्परा से चली आ रही सुनी-सुनाई बात में इस ..प्रकार की त्रुटि का हो जाना, पहले का नाम बाद में और पीछे का नाम पहले प्रा जाना असंभव नहीं है । अस्तु । __इस प्रकार की स्थिति में द्रोणाचार्य के सम्बन्ध में क्षत्रियकुलोत्पन्न होने का जो उल्लेख है, वह वस्तुतः इन्हीं द्रोणाचार्य के लिए समझा जाना चाहिये । इस सम्बन्ध में एक कथानक स्मरण हो पाता है वह इस प्रकार है-"राजा भोज की राज्य सभा में चार विदुषियां उपस्थित हुईं। उन्होंने अपनी काव्य प्रतिभा १. श्री वज्रानुप्रवृत्तप्रकट मुनिपतिपृष्ठवृत्तानि तत्तद् ग्रन्थेभ्यः कानिचिच्च श्रुतधरमुखतः कानिचित् सङ्कलय्य । दुष्प्रापत्वादमीषां विशकलिततर्यकत्रचित्रावदातं जिज्ञासकाग्रहाणामधिगतविधयेऽभ्युच्चयं स प्रतेने ।।१७।। -प्रभावक चरित्र, प्रशस्ति पृष्ठ २१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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