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________________ १८८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ गच्छ थे और उन सभी गच्छों के पृथक-पृथक् चौरासी प्राचार्य थे तथापि विक्रम की १२वीं शताब्दी में वे सभी गच्छ एक सूत्र में बंधे हुए थे। द्रोणाचार्य उन सब प्राचार्यों में प्रधानाचार्य थे। उनका आदेश न केवल प्रत्येक गच्छ के प्राचार्य के लिये ही अपितु चैत्यवासी परम्परा के प्रत्येक सदस्य के लिये अनिवार्य रूपेण शिरोधार्य होता था। इन सब तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर यही अनुमान किया जाता है कि द्रोणाचार्य विक्रम की ११वीं-१२वीं शताब्दी के चैत्यवासी परम्परा के एक सर्वशक्ति-सम्पन्न महान् आचार्य थे। किन्तु बड़े दुःख के साथ कहना पड़ता है कि आचार्य द्रोण गृहस्थावस्था में किस प्रदेश के किस ग्राम अथवा नगर के रहने वाले, किस जाति के थे, उनके माता-पिता का नाम क्या था, कब वे श्रमण धर्म में दीक्षित हुए, उनके गुरु का नाम क्या था, उन्हें कब आचार्य पद पर अधिष्ठित किया गया, कितने वर्षों तक वे आचार्य पद पर रहे तथा उनका स्वर्गवास कब हुआ, इन सब बातों के सम्बन्ध में जैन साहित्य में कहीं कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली में इनके सम्बन्ध में जो प्रासंगिक उल्लेख प्राप्त होता है उससे इनके जीवनवृत्त के संबंध में केवल इतना ही परिचय प्राप्त होता है कि वे चैत्यवासी परम्परा के प्रमुख आचार्य और आगमज्ञान के मर्मज्ञ थे। वे अपने अधीनस्थ आचार्यों के विशाल समूह को आगमों की वाचना भी देते थे। नवाङ्गीवृत्तिकार आचार्य अभयदेवसूरि जिस समय नौ अंगों पर वृत्तियाँ निर्मित करने के दृढ़ संकल्प के साथ पट्टण नगर की करड़ि-हट्टी बस्ती में आये और वहां उन्होंने वृत्तियों का निर्माण प्रारम्भ किया, उस समय जब उन्हें ज्ञात हुआ कि चैत्यवासी परम्परा के द्रोणाचार्य अपने अधीनस्थ आचार्यों को आगमों की वाचना प्रदान कर रहे हैं तो अभयदेवसूरि भी उनके पास आगमों की वाचना सुनने के लिये जाने लगे । द्रोणाचार्य ने उन्हें सम्मानपूर्वक अपने ग्रासन के समीप अासन दिया। अभयदेवसूरि ने वाचना सुनते समय जब यह देखा कि द्रोणाचार्य संदेहास्पद स्थलों पर अतिमन्द स्वर में बोलते हैं और इस प्रकार उस पर किसी प्रकार की व्याख्या किये बिना ही आगे बढ़ जाते हैं, तो दूसरे दिन अपने साथ उस अंग शास्त्र की वृत्ति के उन अंशों को द्रोण के पास लेकर आये जिन पर प्राचार्य द्रोण को उस दिन वाचना देनी थी। वृत्ति के उन अंशों को आचार्य द्रोण के समक्ष उपस्थित करते हुए अति विनम्र शब्दों में निवेदन किया :- "अंग सूत्रों पर व्याख्यान से पूर्व आप इन पत्रों को पढ़ लीजिये । इनमें उन सूत्रों पर विवरण लिखा हुआ है। इससे आपको व्याख्यान में सहायता मिलेगी।" अंगवृत्ति के इन पत्रों को वहाँ उपस्थित चैत्यवासी प्राचार्यों ने देखा और पढ़ा भी। वे सब आश्चर्याभिभूत हो उठे। द्रोणाचार्य ने भी उन वृत्तिपत्रों को पढ़ा। आगम के गूढार्थ को इतनी सहज सुबोधगम्य भाषा में वरिणत देखकर द्रोणाचार्य के आश्चर्य का पारावार नहीं रहा। वे अभयदेवसूरि से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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