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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] द्रोणाचार्य [ १८७ अधिकारों में समाहित था। "ततः आशीदुर्गे श्रीमत्कूर्चपुरीय देवगृहनिवासिजिनेश्वरसूरिरासीत् । तत्र ये श्रावकपुत्रास्ते सर्वेऽपि तस्य मठे पठन्ति ।"" इस उल्लेख से चैत्यवासी परम्परा की २ बड़ी विशेषताएं प्रकाश में आती हैं। पहली तो यह कि चैत्यवासी परम्परा की, उसके गच्छों की पाटण से सुदूरस्थ प्रदेश कूर्चपुर (संभवतः साम्प्रतकालीन कुचेरा) में शाखा और आशीदुर्ग उपखण्ड में उपशाखा की भांति देश के विभिन्न भागों में शाखाओं एवं उपशाखाओं का जाल बिछा हुआ था। दूसरी विशेषता यह कि प्रत्येक प्रदेश के प्रत्येक खण्ड की शाखा में और उपखण्डों की उपशाखाओं में स्थानीय एवं अड़ोस-पड़ोस के क्षेत्रों को समुचित शिक्षण देने की व्यवस्था थी। सभी खण्डों एवं उपखण्डों के मठों में पौगण्ड पौध को चैत्यवासी परम्परा के संस्कारों में ढालने के साथ साथ व्याकरण, काव्य, न्याय आदि विषयों और आगमों का उच्च प्रशिक्षण देकर भावी-पीढ़ियों के नेतृत्व के लिये चैत्यवासी परपरा के भावी कर्णधारों को तैयार किया जाता था। "तेनापि सिद्धान्तो व्याख्यातु समारब्धः । सर्वेऽप्याचार्याः कपलिकां गृहीत्वा श्रोतु समागच्छन्ति ।"२ इस उल्लेख से यह तथ्य भली-भांति प्रकाश में आता है कि चैत्यवासी परम्परा के प्रधानाचार्य आगमों के तलस्पर्शी ज्ञाता थे और वे अपने अधीनस्थ अथवा आज्ञानुवर्ती सभी प्राचार्यों को आगमों का अध्ययन नियमित रूप से करवाते थे । इस उल्लेख से चैत्यवासी परम्परा में शास्त्रज्ञान के प्रति अभिरुचि एवं जागरूकता का आभास होने के साथ ही अनुमान किया जा सकता है कि देश के विभिन्न भागों में अवस्थित सभी मठों में चैत्यवासी परम्परा के अनुयायियों की सन्तति को समुचित शिक्षण देकर इस परम्परा के भावी कर्णधार, सद्गृहस्थ, समाजसेवी, योग्य कार्यकर्ताओं के निर्माण की और श्रमण-श्रमणी वर्ग को आगमों का अध्ययन करवाने की व्यवस्था थी । इसी प्रकार "प्रभोहरदेशे जिनचन्द्राचार्य देवगृह-निवासिनश्चतुरशीतिस्थावलकनायका आसन् ।"3 एवम् "मालव देशे उज्जैणी नयरीए कच्चोलायरिओ चेइयवासी परिवसई ।"४ तथा ............नीसरिऊरण अणहिलपुरपट्टणे गयो । तत्थ चुलसीइ पोसहसाला, चुलसीइ गच्छवासिणो भट्टारगा वसंति ।"५ इन उल्लेखों से यह भली-भांति सिद्ध हो जाता है कि चैत्यवासी परम्परा वस्तुतः विक्रम की बारहवीं शताब्दी में न केवल गुर्जर प्रदेश की ही अपितु देश के विभिन्न भागों की बहुजनसम्मत एक बड़ी ही शक्तिशाली परम्परा थी। यद्यपि इस परम्परा में चौरासी १. खरतरगच्छ वृहद्गुर्वावली, पृष्ठ ७ २. वही - पृष्ठ ७ ३. खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली पृष्ठ १ ४. श्री वृद्धाचार्य प्रबंधावलिः जिनवल्लभसूरि प्रबंधः खरतरगच्छ वृहद् पट्टावली-पृष्ठ ६० ५. वही पृष्ठ ६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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