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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] अभयदेवसूरि
( १८३ क्रियोद्धार करने वाले पूणिमागच्छ-संस्थापक आचार्य चन्द्रप्रभसूरि के समय तक पाटण का सम्पूर्ण जैन संघ चैत्यवासी परम्परा के ही प्रभुत्व में रहा था।
इस प्रकार की परिस्थिति में एक शक्तिशाली प्रतिपक्षी परम्परा के साथ संघर्षात्मक स्थिति को टाल कर समन्वयात्मक रीति-नीति को अपनाना ही श्रेयस्कर था। विशेष कर उस स्थिति में जबकि चैत्यवासी परम्परा के कर्णधारों ने नवांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरि के समक्ष मेल-जोल का हाथ बढ़ाया हो। नवांगीवृत्तिकार आचार्य अभयदेवसरि के जीवन-वृत्त की घटनाओं के सूक्ष्म अन्तनिरीक्षण से भी यही प्रकट होता है कि उन्होंने जीवन भर सृजनात्मक कार्य में ही अपनी अद्भुत् प्रतिभा का उपयोग किया, संघर्षात्मक अथवा विघटनकारी प्रवृतियों में नहीं।
अभयदेवसूरि के स्वर्गस्थ हो जाने के पश्चात् उनके शिष्य जिन वल्लभसूरि वस्तुतः चैत्यवासी परम्परा के प्राचार्यों एवं अनुयायियों के साथ इस प्रकार का मधुर सम्बन्ध नहीं निभा सके। उन्होंने संघपट्टक नामक लघु ग्रन्थ की रचना कर चैत्यवासियों का डटकर न केवल विरोध ही अपितु उग्र रूप से खण्डन किया . जिनवल्लभसूरि के इस प्रकार के संघर्षात्मक व्यवहार के कारण ही उन्हें पाटन के शक्तिशाली जैन संघ में चैत्यवासियों का प्रबल प्रभुत्व देखते हुए पाटन छोड़ कर चित्तौड़ की अोर विहार करने के लिये बाध्य होना पड़ा। अभयदेवसूरि के स्वर्गारोहरण के उत्तरवर्ती काल की इन घटनाओं पर विचार करने से यह स्पष्टतः प्रकट हो जाता है कि विक्रम की बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के प्रथम दशक तक चैत्यवासियों का प्रबल बहुमत और प्रभुत्व था ।
___ इस प्रकार का अपने प्रतिपक्षी की सशक्त स्थिति को देखते हुए प्राचाय अभयदेवसूरि ने अपनी सुविहित परम्परा के हित को दृष्टि में रखते हुए चैत्यवासी परम्परा के साथ सौहार्दपूर्ण मेल-जोल एवं एक दूसरे के सहयोग का आदानप्रदानात्मक जो समझौता किया, वह तत्कालीन परिस्थितियों में समुचित ही कहा जा सकता है।
विक्रम सं० १०७९-८० में पाटन पति चालुक्य नरेश दुर्लभ राज की राज्य सभा में चैत्यवासी परम्परा की करारी हार के उपरान्त भी विक्रम सं० ११५६ तक पाटन के जैन संघ पर अधिकार तो वस्तुतः चैत्यवासी परम्परा का ही रहा था। पाटण जैन संघ के छिन्न-भिन्न होने के काल के सम्बन्ध में लब्ध प्रतिष्ठ इतिहासज्ञ पं० श्री कल्याणविजयजी ने निम्नलिखित रूप में प्रकाश डाला है :
___ "प्राचार्य चन्द्रप्रभ ने प्राथमिक रूप में साधु द्वारा जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा करने का विरोध किया और धीरे-धीरे उनके अनुयायियों ने पूर्णिमा का पाक्षिक प्रतिक्रमण और भाद्रपद शुक्ल पंचमी को सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना प्रारम्भ किया। महा निषीथ सूत्र के आधार पर पहले जो उपधान करवाया जाता था, उस
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