________________
१८४ ]
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ प्रवृत्ति का भी त्याग किया। आय रक्षित सूरि, जो अंचलगच्छ के प्रवर्तक माने जाते हैं; उन्होंने तो चन्द्रप्रभ से भी दो कदम आगे रखे, प्रचलित धार्मिक क्रिया-काण्ड जो किसी न किसी सूत्र अथवा उसकी पञ्चाङ्गी का आधार रखता था, उसे छोड़कर शेष सभी परम्परागत प्रवृत्तियों का त्याग कर दिया, ..........."इस विरोध तथा नये गच्छों की उत्पत्ति का परिणाम यह हुआ कि पाटण का संघ-बंधारण जो सैकड़ों वर्षों से प्रक्षुण्ण चला पा रहा था, छिन्न-भिन्न हो गया।"१
इससे भी स्पष्टतः यही परिलक्षित होता है कि अभयदेवसूरि के समय तक भी पाटण का चैत्यवासी संघ अपनी पराजय के उपरान्त भी पर्याप्त रूपेण सशक्त और सुदृढ़ था। पाटण के जैन संघ में उसका अपनी पराजय से पूर्व की भांति शत-प्रतिशत तो बहुमत नहीं परन्तु पाटण के जैन संघ को येन केन प्रकारेण अपने प्रभुत्व में रखने योग्य बहुमत पूर्णिमागच्छ के संस्थापक चन्द्रप्रभसूरि के क्रियोद्धार काल तक बना रहा।।
चैत्यवासी परम्परा की इस प्रकार की सुदृढ़ एवं सशक्त स्थिति को देखते हुए चैत्यवासियों की पहल पर अभयदेवसूरि ने पारस्परिक सौहार्द, सहयोग एवं समझौते के लिए हाथ बढ़ाया। बहुत सम्भव है, इसी प्रकार की समन्वयात्मक रीतिनीति का दोनों पक्षों द्वारा अवलम्बन लिये जाने के समय में वे सभी अनागमिक विधि-विधान, मान्यताएँ, आडम्बरपूर्ण आयोजन आदि-आदि कार्य कलाप वर्द्धमान सूरि की एकमात्र आगम को ही सर्वोच्च एवं परम प्रामाणिक मानने वाली परम्परा में और उसके साथ-साथ शनैः शनैः सुविहित नाम से पहिचानी जाने वाली अन्य परम्पराओं, अन्य गच्छों, आम्नायों, सम्प्रदायों आदि में भी प्रविष्ट हो कालान्तर में रूढ़ हो गये हों।
इन सब तथ्यों को लक्ष्य में रखकर नवांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरि के जीवन की घटनाओं के आधार पर यदि आगे की शोध की जाय तो जैन संघ में प्रविष्ट हुई पागम विरुद्ध मान्यताओं के सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश पड़ सकता है। हमें आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि इतिहास के विद्वान् शोधार्थी इस दिशा में सूक्ष्म शोधपरक दृष्टि से खोज करने का प्रयास करेंगे।
१. पट्टावली पराग संग्रह, पं० कल्याण विजयगणि, पृष्ठ ३५१ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org