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________________ १८२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास -भाग ४ लिये समान रूप से ग्राह्य-उपभोग्य बनाने के लक्ष्य से अभयदेवसूरीया नवाङ्गी वृत्तियों को चैत्यवासी परम्परा के प्रमुख प्राचार्य श्री द्रोणसूरि द्वारा संशोधित करवाने और परस्पर सहयोग करते रहने की रीति-नीति पर दोनों पक्षों में मतैक्यपूर्ण निश्चय हुअा अथवा सम्मानास्पद समझौता हुआ था। खरतर गच्छ वृहद् गुर्वावलीकार के शब्दों में चैत्यवासी परम्परा के मुख्य आचार्य द्रोणसूरि द्वारा अभयदेवसूरि के समक्ष इस प्रस्ताव का रखा जाना कि उनके द्वारा जितनी वृत्तियों का निर्माण किया जायगा, उन सब अङ्गवृत्तियों का संशोधन और पालेखन तक वे (द्रोणाचार्य) स्वयं करेंगे । और तदनन्तर उपरिलिखित तीनस्थानांग, ज्ञाताधर्मकथाङ्ग तथा अौपपातिक की वृत्तियों की प्रशस्तियों में स्वयं अभयदेवसूरि द्वारा इस प्रकार के स्पष्ट उल्लेख का किया जाना कि पाण्डित्य गुण से समन्वित, गुण के समान प्रिय, निर्वत कुल रूपी गगन मण्डल के पूर्णचन्द्र द्रोण नामक प्रमुख प्राचार्य ने इस वृत्ति का संशोधन किया-ये दोनों ओर से एक दूसरे की बात की पुष्टि करने वाले प्रमाण इस ऐतिहासिक तथ्य के प्रबल समर्थक हैं कि दोनों परम्पराओं में विक्रम की १२वीं शताब्दी के प्रथम दशक में पारस्परिक सहयोग, मेल-मिलाप अथवा मेल-जोल का समझौता हा। उक्त समझौते का दोनों पक्षों की ओर से भली-भांति पालन किया गया। दोनों परम्पराओं के बीच हुए इस प्रकार के समझौते का पालन अभयदेवसूरि के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् भी एक दो दशक तक चलता रहा। अब सहज ही किसी भी विज्ञ के मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न हो सकती है कि उत्तरोत्तर लोकप्रिय होती जा रही वसतिवासी परम्परा के प्राचार्य अभयदेवसूरि को चैत्यवासी परम्परा के प्रमुख प्राचार्य से पारस्परिक मेल-जोल बढ़ाने की, पारस्परिक सहयोग के आदान-प्रदान की, समन्वयात्मक नीति का अवलम्बन ले किसी भी रीति-नीति के विषय में समझौता करने की आवश्यकता क्यों प्रतीत हुई। इस सम्बन्ध में तात्कालिक परिस्थितियों के विषय में जो उल्लेख जैन वाङ्मय में उपलब्ध होते, हैं उनके पर्यवेक्षण से प्रत्येक विज्ञ विचारक को स्वस्थरूपेण परिलक्षित हो जायेगा कि अभयदेवसूरि के समय तक ही नहीं अपितु उनके स्वर्गारोहण के लगभग बीस वर्ष पश्चात् तक चैत्यवासी परम्परा का पाटण में ही नहीं अपितु पूरे गुर्जर प्रदेश में बड़ा ही शक्तिशाली संगठन रहा । राज्याधिकारी श्रेष्ठि वर्ग और अन्यान्य वर्गों के बहुसंख्यक लोग विक्रम संवत् ११५६ में एक व्यापक १. निर्वतककुलनभस्तलचन्द्र द्रोणाख्यसूरिमुख्येन । पण्डितगुणन गुणवत्प्रियेण संशोधिता चेयम् ॥१०।। ज्ञाता धर्मकथांग वृत्ति प्रशस्ति । २. अणहिल पाटक नगरे, श्रीमद् द्रोणाख्यसूरिमुख्येन । पण्डितगुणेन गुणवत्प्रियेण संशोधिता चेयम् ।।३।। औपपातिक वृत्ति प्रशस्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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