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सामान्य श्रुतघर काल खण्ड २ ] प्रभयदेवसूरि
[ १८१ येनाऽस्माकं मुख्योऽप्येवंविधमादरं दर्शयति, पश्चात् के वयं भविष्यामः ?' द्रोणाचार्योऽपि वृहत्तरः सदर्थो विशेषज्ञो गुणपक्षपाती सन् नूतनं वृत्तं कृत्वा सर्वेषु देवगृहनिवास्याचार्यमठेषु प्रेषितम्
आचार्याः प्रतिसद्म सन्ति महिमा येषामपि प्राकृतै
तु नाऽध्यवसीयते सुचरितैस्तेषां पवित्रं जगत् । एकेनाऽपि गुणेन किन्तु जगति प्राज्ञाधनाः साम्प्रतं, यो धत्तेऽभयदेवसूरि समतां सोऽस्माकमावेद्यताम् ।।१०॥
तत उपशान्ताः सर्वे । द्रोणाचार्येणाभाणि श्रीमदभयदेव सूरीणामग्रे-"या वृत्तीः सिद्धान्ते करिष्यसि ताः सर्वा मया शोधनीया लेखनीयाश्च ।"
. खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली के उल्लेख से इस ऐतिहासिक तथ्य में कहीं किंचिन्मात्र भी सन्देह के लिये अवकाश नहीं रह जाता कि चैत्यवासी परम्परा के युग प्रधानाचार्य तुल्य सर्वमान्य प्रमुख आचार्यप्रवर द्रोणसूरि ने और उनके अधीनस्थ चैत्यवासी परम्परा के सभी ८४ गच्छों के प्राचार्यों ने सुविहिताचार्य अभयदेवसूरि के साथ समन्वयकारी रीति-नीति का अवलम्बन ले सौहार्दपूर्ण मेल-जोल का हाथ बढ़ाया।
_इस ऐतिहासिक तथ्य की निर्विवादरूप से वास्तविकता सिद्ध हो जाने के साथ-साथ वृहद् गुर्वावली का उपर्युक्त गद्यांश इस बात की ओर भी संकेत करता है कि दोनों परम्पराओं में कतिपय मान्यताओं एवं कतिपय समन्वयकारिणी रीति-नीतियों पर भी "कुछ हम झुकते हैं, थोड़ा तुम भी झुको-क्योंकि अब सहनौ वीर्यं करवावहै का युग आ गया है, 'संघे शक्ति कलौयुगे का समय आ गया है, हठाग्रह दोनों पक्षों के लिये समान रूप से ही अहितकर होगा" अनुमानतः कुछ इस प्रकार के पारस्परिक विचार-विमर्श के पश्चात् कतिपय रीति-नीतियों के सम्बन्ध में मतैक्य पर पहुंचने का प्रयास भी हुआ था। दोनों पक्षों के एतद्वियषक विचारविमर्श में किन-किन रीति-नीतियों पर दोनों परम्पराओं का मतैक्य हुआ, इस सम्बन्ध में प्रमाणाभाव के कारण सुनिश्चित रूप से अभी कुछ नहीं कहा जा सकता किन्तु वृहद् गुर्वावली के उपरिलिखित उद्धरण और नवागी वृत्तिकार स्वयं अभयदेवसूरि द्वारा स्थानांग वृत्ति, ज्ञाताधर्मकथांगवृत्ति और औपपातिक वृत्ति की प्रशस्तियों में किये गये उल्लेखों से निर्विवाद रूपेण अन्तिम रूप से यह सिद्ध हो जाता है कि नवाङ्गी वृत्तियों को चैत्यवासी और सुविहित दोनों ही परम्पराओं में साधकों के
१. खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली, पृष्ठ ७, प्राचार्य श्री जिन विजय मुनि द्वारा सम्पादित एवं
सिंही जैन शास्त्र शिक्षापीठ भारतीय विद्या भवन, बम्बई द्वारा प्रकाशित । २. द्रोणाचार्यादिभिः प्रारिनेकरादतं यतः ॥६॥ स्थानांग वृत्ति प्रशस्ति ।
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