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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ झकझोर कर खोखली कर देने वाली, उनके केन्द्रीय सुदृढ़ गढ़ में नवोदित वसतिवासी परम्परा के आचार्य अभयदेवसूरि के प्रति इतना बड़ा सम्मान प्रकट करना, वहाँ उस समय आगमवाचनार्थ उपस्थित लगभग ८४ चैत्यवासी प्राचार्यों के रोम-रोम में विषबुझी सहस्रों सहस्र शूलों की भांति चुभा । मर्माहत अवस्था में रूष्ट हो बिना कुछ बोले वे सब के सब सहसा उठकर मुख्य मठ से निकल अपने-अपने मठों की ओर चल पड़े। उन्होंने परस्पर मन्त्रणा की हमारे सब से बड़े प्राचार्य शिशु तुल्या नगण्य प्रतिपक्षी परम्परा के समक्ष इस प्रकार झकने लगे तो हमारी और इस देशव्यापिनी चैत्यवासी परम्परा की क्या दुर्दशा होगी?
___ जैसा कि पहले बताया जा चुका है और अभी खरतरगच्छीया वृहद् गुर्वावली के मूल उद्धरण के साथ बताया जा रहा है, पाटण सघाध्यक्ष एवं चैत्यवासो परम्परा के प्रमुख प्राचार्य द्रोणसूरि ने तत्काल एक श्लोक की रचना कर चौरासी चैत्यवासी आचार्यों के पास उस श्लोक की प्रतियाँ भेजीं, जिसके माध्यम से शताधिक गुरगों के निधान अभयदेवसूरि के किसी एक भी गुरग की तुलना करने वाले प्राचार्य को सम्मुख होने के लिये ललकारा था । उस एक ही श्लोक में की गई अभयदेवसूरि की प्रशंसा से अभिभूत सभी चैत्यवासी आचार्य द्रोणाचार्य के प्रमुख मठ में लौट आये और पूर्ववत् उनसे आगम वाचना लेने लगे।
खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली का वह मूल पाठ विज्ञ शोधकों एवं पाठकों की सुविधा के लिये यहां प्रस्तुत किया जा रहा है, जिसे इस सन्दर्भ में पढ़ते ही, तत्काल उन्हें सहज ही इस अत्यधिक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य पर निस्संदिग्ध रूप से विश्वास हो जायगा कि चैत्यवासी परम्परा के सर्वाधिक प्रभावशाली आचार्य द्रोणसूरि ने और उन द्रोणसूरि के परामर्श पर चैत्यवासी परम्परा के सभी प्राचार्यों ने सामूहिक रूप से सुविहित परम्परा के आगम-मर्मज्ञ विद्वान प्राचार्य श्री अभयदेवसूरि के साथ सौहार्दपूर्ण-सम्मानास्पद मेल-जोल बढ़ा कर समन्वयात्मक नीति का अवलम्बन किया :--
_ “११. तस्मिन् प्रस्तावे देवगृहनिवास्याचार्यमुख्यो द्रोणाचार्योऽस्ति । तेनापि सिद्धान्तो व्याख्यातु समारब्धः । सर्वेऽप्याचार्याः कपलिकां गृहीत्वा श्रोतु समागच्छन्ति । तथा अभयदेवसूरिरपि गच्छति । स चाचार्य प्रात्मसमीपे निषद्यां दापयति । यत्र-यत्र व्याख्यानं कुर्वतस्तस्य सन्देह उत्पद्यते, तदा नीचैः स्वरेण तथा कथयति यथान्ये न शृण्वन्ति । अन्यस्मिन् दिने यद् व्याख्यायते सिद्धान्तस्थानं तवृत्तिरानीता। एतां चिन्तयित्वा व्याख्यानयन्तु भवन्तः । यस्तां पश्यति सार्थकां, तस्याश्चर्यं भवति, विशेषेण व्याख्यातुराचार्यस्य । स चिन्तयति-कि साक्षाद्गगधरैः कृताऽथवाऽनेनाऽपि, तस्मिन्विषयेऽतीवादरो मनसि विहितः । द्वितीय दिने सम्मुखमुत्थातु प्रवृत्तः । ततस्तादृशं सुविहिताचार्यविषयमांदरं दृष्ट्वा, रुष्टा व्युत्थिताः सन्तो वसतौ गता भणन्ति देवगृहनिवास्याचार्या:-'केन गुणेनैषोऽधिक:
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