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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
अभयदेवसूरि
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इस अप्रत्याशित पराजय के कारण परिवर्तित परिस्थितियों के परिणामस्वरूप चैत्यवासी परम्परा की प्रतिष्ठा को घातक तो नहीं पर गहरा आघात लगा। पीढ़ियों-प्रपीढ़ियों पुराने अपने ही अभेद्य गढ़ पाटन में पराजित होने के दुस्सह्य दुःख से प्रपीड़ित चैत्यवासी परम्परा ने प्रारम्भ में तो अभिनव रूप से लोकप्रियता प्राप्त करने वाली वसतिवासी परम्परा को अपनी चैत्यवासी परम्परा का अस्तित्व तक मिटानेवाली परम्परा मानकर उसके साथ विरोधात्मक व्यवहार ही किया होगा। किन्तु जब चैत्यवासी परम्परा के कर्णधार विद्वान्, प्रतिभाशाली एवं दूरदर्शी आचार्यों ने यह अनुभव किया होगा कि वसतिवासी परम्परा के आगमिक उपदेशों से प्रभावित हो जनमानस उसकी ओर आकर्षित हो उनकी चैत्यवासी परम्परा से उन्मुख होता चला जा रहा है, तो अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिये सुनिश्चित रूप से अपने आचार-विचारों, कार्यकलापों एवं अपनी रीति-नीति में शनैः शनैः कुछ ऐसे परिवर्तन किये होंगे, जिनके कारण उनकी परम्परा से विमुख होता जा रहा जन-मानस पुन: उनकी ओर आकर्षित हो सके । अनुमान किया जाता है कि संभवतः अपने इस प्रकार के परिवर्तनकारी प्रयासों से प्राप्त हुई थोड़ी बहुत सफलता से प्रभावित हो चैत्यवासी परम्परा के प्रमुख आचार्यों ने समन्वयवाद का अवलम्बन ले वसतिवासी श्रमरणों के साथ मेल-जोल बढ़ाने का रुख भी अपनाया होगा।
न केवल वसतिवासी परम्परा के साहित्य में अभयदेवसूरि के जीवन वृत्त सम्बन्धी उल्लेखों से ही अपितु स्वयं अभयदेवसूरि द्वारा अपनी कृतियों में किये गये उल्लेखों से भी इन उपरिलिखित अनुमानों की निस्संशय रूप से पुष्टि होती है कि महान् क्रियोद्धारक वर्द्धमानसूरि एवं चैत्यवासियों को चालुक्य राजसभा में परास्त करने वाले जिनेश्वरसूरि के स्वर्गस्थ हो जाने के पश्चात् अभयदेवसूरि के आचार्यकाल में चैत्यवासी परम्परा के कर्णधार आचार्य द्रोणसूरि के दूरदर्शिता पूर्ण निर्देशन में उस परम्परा के प्राचार्यों ने वसतिवासी परम्परा के प्रतिभाशाली प्राचार्य के समक्ष सुनिश्चित-रूपेण समन्वयपरक नीति का अवलम्बन ले मेल-जोल का हाथ बढ़ा उस मेल-जोल को सम्मानपूर्ण पारस्परिक सौहार्दभाव का रूप प्रदान किया। चैत्यवासी परम्परा के चौरासी गच्छों के प्राचार्यों के भी युग प्राणतुल्य प्राचार्य एवं पाटण के शक्तिशाली जैन संघ के सर्वोच्च अधिकारसम्पन्न प्रमुख अथवा अध्यक्ष पद से अलंकृत होने पर भी द्रोणाचार्य ने अपनी विरोधी परम्परा के प्राचार्य अभयदेवसूरि को अपनी ओर आते देखकर अभ्युत्थानपूर्वक अर्थात् खड़े होकर उन्हें अपनी परम्परा के प्राचार्यों के सुविशाल समूह के समक्ष जो अप्रत्याशित सम्मान दिया, वह इस बात का किसी भी युक्ति से अन्यथा सिद्ध न होने वाला बड़ा ही ठोस प्रमाण है कि चैत्यवासी परम्परा के कर्णधारों ने समन्वयवादी नीति का आश्रय ले वसतिवासी सुविहित परम्परा के प्राचार्य के साथ सम्मानास्पद सौहार्दपूर्ण मेल-जोल बढ़ाया। सर्वोच्च सत्ता सम्पन्न परम पूज्य पद पर अधिष्ठित अपने आचार्य देव द्वारा वस्तुतः अपनी चैत्यवासी परम्परा की जड़ों को भीषण अन्धड़ की भाँति आमूल चूल
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