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________________ १७४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ देवड्ढिखमासमण जा, परंपरं भावो वियाणेमि । सिढिलायारे ठविया, दव्वो परंपरा बहुहा ।। अभयदेव सूरि ने अपनी स्थानाङ्ग वृत्ति में "सत्सम्प्रदायहीनत्वात्" इस उपरिलिखित पद के माध्यम से अपने समय के जिस तथ्य को प्रकट किया है, उसी तथ्य पर और अधिक सुस्पष्ट प्रकाश डालते हुए इस गाथा में लिखा है :-"यह तो मैं भलीभांति मानता हूँ कि आर्य देवद्धिगणि क्षमा-श्रमण की विद्यमानता (वीर नि. सं. १०००) तक हमारी आर्यधरा पर श्रमण भ० महावीर के धर्मसंघ में भ० महावीर की विशुद्ध मूल अध्यात्मपरक भाव परम्परा अपने जिस वास्तविक रूप में तीर्थ प्रर्वतन काल से निर्मल-प्रबल प्रवाह के साथ चली आ रही थी, उसी वास्तविक भाव परम्परा के रूप में चलती रही, अथवा प्रवाहित रही। किन्तु देवद्धिगरिण के स्वर्गस्थ होने के अनन्तर तो विशुद्ध मूल परम्परा के पक्षधर शिथिलाचार-परायण हो गये और प्रभु के धर्मसंघ में अनेकानेक प्रकार की द्रव्यपरम्पराएँ प्रचलित हो गईं।" अपने समय में प्रचलित शिथिलाचारोन्मुखी एवं आगम प्रतिपादित आचारविचार से प्रतिकूल आचार-विचार वाली अनेक परम्परागों, गच्छ आदि के रूप में प्रचलित सम्प्रदायों, उन गच्छों के दिग्गज प्राचार्यों, विद्वानों, उपासकों आदि की किञ्चित्मात्र भी चिन्ता न करते हुए निष्पक्ष भाव से निर्भीक हो अभयदेवसूरि ने जो तथ्य प्रकट किया है, उससे उनका यह अनुपम महान् गुण प्रकाश में आता है कि वे सत्य के ऐसे महान् एवं प्रादर्श परमोपासक थे, जिनकी तुलना करने वाला देवद्धिगणि क्षमा-श्रमण की उत्तरवर्ती एक सहस्राब्दि की अवधि में एक भी ग्रन्थकार तत्कालीन समग्र जैन वाङ्मय के पुनः पुनः पालोडन-विलोडन के उपरान्त भी कहीं दृष्टिपथ में नहीं आता । अभयदेवसूरि ने “स्थानाङ्ग वृत्ति" और "आगम-अष्टोत्तरी" में एक ऐसे कटुसत्य को उद्घाटित किया है, जो शताब्दियों से साम्प्रदायिक व्यामोहाभिभूत पूर्वाभिनिवेशपरायण विद्वानों के अन्तर्मन को आन्दोलित करता आ रहा है, झकझोरता रहा है कि अभयदेवसूरि द्वारा प्रकट किया गया यह तथ्य कहीं उनके उन सहस्रों-सहस्रों उपासकों की मनोभूमि में उनकी मान्यताओं के प्रति लहलहाती आस्थाओं को उखाड़ न फेंके । यही कारण हैं कि पूर्वाभिनिवेश परस्त कतिपय विद्वानों द्वारा यह कह कर—यह लिख कर इस कटु सत्य पर गहरा आवरण डालने का प्रयास किया जा रहा है कि "पागम अष्टोत्तरी" अभयदेव की कृति नहीं है । यह किसी अन्य अज्ञातनामा विद्वान् द्वारा निर्मित कृति है और किसी निहित स्वार्थ से यशस्वी आगम-मर्मज्ञ नवाङ्गीवृत्तिकार अभयदेवसूरि के नाम पर चढ़ा दी गई है । वस्तुतः अभयदेवसूरि द्वारा उद्घाटित इस तथ्यपूर्ण रहस्य पर पर्दा डालने का प्रयास करते समय इस गाथा में प्रकट किये गये तथ्य की प्रबल पुष्टि करने वाले स्वयं अभयदेवसूरि द्वारा स्थानाङ्गवृत्ति में उल्लिखित “सत्संप्रदायहीनत्वात" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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