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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] अभयदेवसूरि [ १७३ गुर्वावली के एतद्विषयक उल्लेख का पलड़ा प्रभावक चरित्र के उल्लेख की अपेक्षा भारी पड़ता प्रतीत हो रहा है। प्रस्तु, नवाङ्गी वृत्तियों की सहस्रों प्रतिलिपियाँ लिखवाई गई होंगी। शुभारम्भ करने वालों के पश्चात् तो अनेक नगरों के श्रीमन्तों के सहयोग से ही इस प्रकार का गुरुतर कार्य सम्पन्न हो सका होगा। अभयदेवसूरि की कृतियों का अन्तर्वेधी दृष्टि से अध्ययन करने पर उनका एक ऐसा गुण प्रकट होता है, जिसकी ओर अद्यावधि अधिकांश विद्वानों का ध्यान विशिष्ट रूप में आकर्षित नहीं हुआ है। जैन जगत् के विद्वद्वन्द का ध्यान आ० श्री अभयदेवसूरि के उस अनुपम महान् गुण की ओर आकर्षित करने हेतु उनकी वृत्तियों के २ उद्धरण यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं। स्थानाङ्ग आदि ६ अंगों पर वृत्तियों की रचना करते समय उनके समक्ष जो कठिनाइयाँ उपस्थित हुईं, उन्हें तत्कालीन जिनोपासकों एवं उनकी भावी पीढ़ीप्रपीढ़ियों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए उन्होंने स्थानाङ्ग वृत्ति में जिन ७ बड़ी कठिनाइयों का उल्लेख किया है, उनमें से पहली कठिनाई--"सत्सम्प्रदायहीनत्वात्" पर न केवल प्रत्येक विद्वान् को ही अपितु प्रत्येक धर्म प्रेमी विज्ञ को गहराई से विचार करने की आवश्यकता है। प्रशस्ति के प्रथम श्लोक के उक्त प्रथम चरण में अभयदेवसूरि ने बिना किसी प्रकार के साम्प्रदायिक व्यामोह के बड़ी निर्भीकता के साथ इस तथ्य को जैन जगत के समक्ष सुस्पष्ट रूपेरण प्रकट किया है कि आज (वृत्तिकार के युग में) सत्सम्प्रदाय अर्थात् आगमों के गूढार्थ भरे शब्दों एवं सूत्रों के वास्तविक अर्थ का बोध कराने वाली सत्-अच्छी-सच्ची-सम्यक् गुरु-परम्परा का अभाव है। अपने वृत्ति-निर्माण काल से लगभग ५६० वर्ष पूर्व प्रारम्भ हुए. आगमिक विशुद्ध मूल परम्परा के ह्रास ने वीर निर्वाण सं० १५५० के आते-आते जो पूर्ण ह्रास का तो नहीं परन्तु आत्यन्तिक ह्रास का रूप धारण कर लिया और उससे सत्सम्प्रदाय अर्थात् श्रमण भगवान् महावीर की मूल विशुद्ध परम्परा की जो दुःखद दुरवस्था हुई, उस स्थिति का अभयदेवसूरि ने वास्तविक चित्र प्रकट करते हुए बिना किसी मताग्रह के, बिना किसी साम्प्रदायिक व्यामोह के स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है-"आज सत्सम्प्रदाय का एक प्रकार से अभाव है।" यह सत्य के प्रति अभयदेवसूरि के परम प्रगाढ़ प्रेम-गुरण को प्रकट करने वाला प्रबलतम प्रमाण है। __ अभयदेवसूरि के इसी प्रकार के परम गुण को इससे भी और अधिक स्पष्ट रूप से द्योतित करने वाला दूसरा प्रबलतम प्रमाण है उनके द्वारा रचित 'पागम अष्टोत्तरी की अधोलिखित ऐतिहासिक गाथा, जिस पर इस इतिहास ग्रन्थ माला के तृतीय पुष्प में यथाशक्य पूरा प्रकाश डाला जा चुका है। वह अागम अष्टोत्तरी की गाथा इस प्रकार है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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