SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ देवसूरि ने अपने उन श्रावकों को आश्वस्त किया था कि उनके जलपोत सकुशल आ जायेंगे। प्रभावक चरित्रान्तर्गत 'अभयदेवसूरि चरितम्' के श्लोक संख्या १२५ के तृतीय एवं चतुर्थ चरण में यह तो स्पष्टतः लिखा गया है कि पल्यपद्रपुर के श्रावकों ने नवाङ्गी की प्रतियां लिखवाकर अभयदेवसूरि को समर्पित की' किन्तु श्लोक संख्या १२४ के अन्तिम चरण "ततः श्री भीमभूपतिः” और १२५ वें श्लोक के प्रथमार्द्ध "द्रम्मलक्षत्रयं कोशाध्यक्षाद् दापयति स्म सः” इससे स्पष्टतः यही प्रकट होता है कि दैवी प्राभूषण के मूल्य के रूप में महाराजा भीम ने पल्यपद्रपुर के श्रावकों को ३ लाख द्रम्भ (मुद्रा विशेष) दिलवाये और उस धनराशि से उन श्रावकों ने नवों अंगों की वृत्तियों का पालेखन करवा कर अभयदेवसूरि को वे प्रतियां दीं। दो महान् ग्रन्थकारों द्वारा इस विषय में किये गये एक दूसरे से नितान्त भिन्न उल्लेखों को देखकर प्रत्येक सुज्ञ पाठक के अन्तर्मन में इस प्रकार की जिज्ञासा का उठना सहज ही सम्भव है कि उक्त दोनों उल्लेखों में से किसको प्रामाणिक माना जाय । अभयदेवसूरि ने नौ अंगों की वृत्तियों में से चार अंगों की वृत्तियों के अन्त में दी गई प्रशस्तियों में स्वयमेव स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि इन वृत्तियों की रचना उन्होंने पाटन में सम्पन्न की। खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली में भी स्पष्ट उल्लेख है कि नवाङ्गी वृत्तिकार ने पाटन स्थित करडिहट्टी (तुषरहित जौनों का बाजार) वस्ती में विराज कर नव अंगों पर वृत्तियों की रचना की। इसके विपरीत प्रभाचन्द्रसूरि ने अपनी कृति प्रभावक चरित्र में लिखा है कि नवाङ्गी वृत्तिकार ने वृत्तियों की रचना पल्यपद्रपुर में की। इस कारण प्रभावक चरित्र के उल्लेख को तो अांखें मूंद कर ही प्रामाणिक माना जा सकता है, अन्यथा नहीं । लब्ध प्रतिष्ठ साहित्य गवेषक स्व. विद्वान् अगरचन्द नाहटा के अभिमतानुसार 'खरतरगच्छ वहद् गुर्वावली' में वि. सं. १२११ (“सं. १२११ आषाढ वदी ११, जिनदत्तसूरयो दिवंगताः") तक का वृत्तान्त तो सं. १२६५ में सुमतिगणि द्वारा रचित "गणधरसार्द्धशतक-वृहद् वृत्ति' के अनुसार ही प्राचीन शैली का है। इसके अतिरिक्त खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली में यह स्पष्ट उल्लेख है कि इसमें वि. सं. १३०५ तक का वृत्तान्त जिनपतिसूरि के शिष्य जिनपालोपाध्याय ने प्रभावक चरित्र की रचना से २६ वर्ष पूर्व लिखा है। इन सब तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने से खरतरगच्छ वृहद् १. पुस्तकान् लेखयित्वाच, सूरिभ्यो ददिरेऽय तैः ।।१२५।। -प्रभावक चरित्र, अभयदेवसूरि चरितम्, पृष्ठ १६५ २. दिल्ली वास्तव्य साधु, सहुलिसुत सा. हेमाभ्यर्थनया । जिनपालोपाध्यायरित्थं प्रथिताः स्वगुरुवार्ता ।। ७५ ।। ----खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली, पृष्ठ ५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy