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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
परस्पर मन्त्ररणा कर यह निर्णय किया कि गुर्जरेश्वर महाराजा भीम के समक्ष इस दिव्य आभूषण को प्रस्तुत कर दिया जाय और वे इसका जो भी मूल्य दें, वही ले लिया जाय, क्योंकि इसका मूल्य निर्धारित करने में कोई श्रेष्ठिवर सक्षम नहीं है । इस प्रकार मन्त्ररणा कर पाटरंग के प्रमुख श्रेष्ठियों का समूह महाराजा भीम के समक्ष उपस्थित हुआ और वह अद्भुत् श्राभूषरण उसने राजा को दिखाया । पल्यपद्र पुर के श्रावकों से उस आश्चर्यकारी प्राभूषरण के सम्बन्ध में पूरे वृतान्त को सुनकर राजा भीम बड़ा ही प्रमुदित एवं सन्तुष्ट हुआ । वह बोला - " तपस्वी महात्माओं को समर्पित की गई वस्तु बिना मूल्य के मैं ग्रहण नहीं करूंगा । "
श्रेष्ठि समूह ने राजा भीम को निवेदन किया कि उस आभूषण का जो भी मूल्य बतायेंगे, वही सब के लिये स्वीकार्य एवं सर्वमान्य होगा । इस पर महाराजा भीम ने उस देवी आभूषण का मूल्य तीन लाख द्रम्म मुद्रा श्रेष्ठि प्रमुखों को राजकोष से दिलवाकर उसे क्रय कर लिया । उन श्रेष्ठियों ने देवी आभूषण के मूल्य के रूप राजा भीम से प्राप्त हुई तीन लाख द्रम्म की द्रव्य राशि से उन नवों ही अंगों की प्रतिलिपियाँ तैयार करवा कर अभयदेवसूरि को समर्पित कर दीं ।
इसके अनन्तर पाटण, ताम्रलिप्ति, आशापल्ली और धवल्लक नगर के ८४ चतुर श्रावकों ने उन प्रतियों से और भी अनेक प्रतिलिपियाँ प्रचुर मात्रा में लिखवा कर अभयदेवसूरि को समर्पित कीं ।" १
प्रभावक चरित्रकार द्वारा उल्लिखित इस उदन्त के विपरीत 'खरतरगच्छ वृहद गुर्वावली' के रचनाकार ने अपनी कृति में नवाङ्गी वृत्तियों की पुस्तकें लिखवाने के विषय में एक और ही प्रकार का कथानक प्रस्तुत किया है। गुर्वावलिकार के अनुसार, जैसा कि पहले अभयदेवसूरि के जीवन वृत्त के सन्दर्भ में लिखा जा चुका है कि जिस समय अभयदेवसूरि नवाङ्गीवृत्तियों के निर्माण के पश्चात् पाटण से विहार कर पाल्हउदा नामक ग्राम में पधारे, उस समय वहाँ समुद्र मार्ग से विदेशों के साथ व्यापार करने वाले भक्त श्रावकों को जनश्रुति के रूप में एक सूचना मिली कि उनके क्रयारणक से भरे जहाज समुद्र में डूब गये हैं ।
वे श्रावक अभयदेवसूरि के परम भक्त थे । वे प्रतिदिन नियमित समय पर • अपने प्राचार्यदेव के दर्शनार्थ उनके उपाश्रय में जाते थे। उस दिन अपने जहाजों के समुद्र में डूब जाने का उदन्त सुनकर वे शोक सागर में निमग्न हो गये । इसी कारण वे नियत समय से बड़ी देर पश्चात् तक भी गुरु दर्शन हेतु उपाश्रय में नहीं पहुँचे । इस अप्रत्याशित असाधारण विलम्ब को देखकर अभयदेवसूरी को आभास हो गया कि नित्य प्रति नियमित रूप से नियत समय पर आने वाले श्रावकों के आने में विलम्ब का कोई विशेष कारण होना चाहिये । उन्होंने सन्देश भेजकर उन्हें उपाश्रय
प्रभावक चरित्र, अभयदेवसूरि चरितम्, श्लोक ११५ से १२५ ।
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