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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] अभयदेवसूरि वृत्तिकार ने न केवल सैद्धान्तिक तत्त्वों और दार्शनिक तथ्यों पर ही प्रकाश डाला है अपितु यत्र-तत्र मानव जीवन से चोली-दामन का सा सम्बन्ध रखने वाले सामाजिक एवं राजनैतिक विषयों पर प्रकाश डालने में भी वे सजग रहे हैं। अतः इन वृत्तियों के अध्ययन, निदिध्यासन से अध्येता को सहज ही यह अनुभव होने लगता है कि अभयदेवसूरि ने इन ह वृत्तियों के रूप में वस्तुतः उसे पागमों के निगूढ़ रहस्य को उद्घाटित कर देने वाली ६ कुञ्जियां ही प्रदान कर दी हैं। वृत्तियों की रचना के गुरुतर कार्य को हाथ में लेते ही अभयदेवसूरि के समक्ष उपस्थित हुई कठिनाइयों पर स्वयं ने प्रकाश डाला है। उनके द्वारा सत्सम्प्रदायहीनता इस श्लोक के माध्यम से उनके वास्तविक सूत्रार्थ का यथातथ्य रूपेण बोध कराने वाली गुरु-परम्परा का अभाव आदि जो बड़ी-बड़ी ६ कठिनाइयां प्रकट की गई हैं, उन कठिनाइयों के उपरान्त भी अभयदेवसूरि ने जिस सुगम्यसुबोध सरल एवं सुन्दर शैली में इस गुरुतर कार्य के निष्पादन में जो प्रथम प्रयास किया है, उस प्रयास को यदि भगीरथ प्रयास की संज्ञा से अभिहित किया जाय तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। नौ अंगों की नवों वृत्तियों की प्रतिलिपियाँ लिखवाने के सम्बन्ध में प्रभावक चरित्रकार और खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावलीकार ने एक दूसरे से भिन्न दो प्रकार के उल्लेख किये हैं। प्रभाचन्द्रसूरि द्वारा प्रभावक चरित्र में निबद्ध एतद्विषयक विवरण का सार इस प्रकार है : . "स्थानाङ्गादि अंगों पर अभयदेवसूरि द्वारा प्रारम्भ किये गये कार्य के सम्पन्न हो जाने और महान् श्रुतधरों द्वारा उन वृत्तियों में आवश्यक संशोधन कर दिये जाने पर श्रावकों ने उन वृत्तियों की प्रतिलिपियाँ तैयार अर्थात् वृत्तियाँ लिखवाने का कार्य हाथ में लिया। उस समय शासन देवी अभयदेवसूरि के समक्ष एकान्त में उपस्थित हुई और उसने सूरिवर से निवेदन किया--"प्रभो! इन नवों वृत्तियों की प्रथम प्रतियाँ मेरे द्रव्य से लिखवाई जायँ ।" यह कहकर शासनाधिनायिका ने अपना एक स्वर्ण निर्मित दिव्य आभूषण उपाश्रय के मुख्य द्वार के ऊपर रख दिया और देवी तत्काल अदृश्य हो गई। - भिक्षाचरी कर लौटे साधु सूर्य के समान दैदीप्यमान उस अद्भुत् आभूषण को देखकर चमत्कृत् एवं आश्चर्याभिभूत हो उठे। उन्होंने अभयदेवसूरि से उस विषय में जब जिज्ञासा की तो उन्होंने वास्तविक वृतान्त अपने शिष्यों को सुनाकर उन्हें प्रमुख श्रावकों को बुलवाने का निर्देश दिया। श्रावक उपाश्रय में आचार्य श्री के समक्ष उपस्थित हुए। उन्होंने उस देवी आभूषण को अच्छी तरह देखा पर उस अनमोल आभूषण के मूल्य के सम्बन्ध में नितान्त अनभिज्ञ श्रावक उस मुद्रिका अथवा आभूषण को लेकर अनहिलपुर पत्तन गये। पत्तन के प्रमुख जौहरी और श्रेष्ठिवर भी जब उस अमूल्य आभूषण के मूल्य का निर्णय न कर सके, तो उन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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