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________________ १६२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ "थूणानि सम्भवन्तीह, केवलं सुविवेकि भिः । सिद्धान्तानुगतो योऽर्थः, सोऽस्माद् ग्राह्यो न चेतरः ।।३।। शोध्यं चैतज्जिने भक्तैर्मामवर्दियापरैः । संसार कारणाद् घोरादपसिद्धान्तदेशनात् ।।४।।"१ सार रूप में कहा जाय तो अनन्तकाल तक भयावहा भवाटवी में भटकाने वाले उत्सूत्र व्याख्यान अथवा प्ररूपण के भय से भीरु बने अभयदेवसूरि ने अति विनम्र शब्दों में स्वयं द्वारा अनेक प्रकार की त्रुटियां होने की सम्भावना व्यक्त करते हुए क्षमायाचनापूर्वक जिनभक्त विद्वज्जनों से उन त्रुटियों को शुद्ध कर लेने की प्रार्थना की है। दुःसम्प्रदायादसदूहनाद्वा, भगिष्यते यद्वितथं मयेह। तद्धीधनैमिनुकम्पयद्भिः, शोध्यं मतार्थक्षतिरस्तु मैव ।।२।। अर्थात् परम्परागत अर्थ के अभाव अथवा अज्ञान के कारण इस समवायांग वृत्ति में मेरे द्वारा सम्भावित विपरीत प्ररूपण को विद्वज्जन शोधने की कृपा करें । २, "शास्त्रार्थे मे वचनमनघं दुर्लभमिह ॥३॥" तथा "ततः सिद्धान्त तत्वज्ञैः स्वयमुह्यः प्रयत्नतः न पुनरस्मदाख्यात एव ग्राह्यो नियोगतः ।।४।।"3 अर्थात् मेरे द्वारा सिद्धान्तों से विपरीत इस वृत्ति में लिख दिया गया हो तो उसको विद्वज्जन शुद्ध कर लें । केवल मेरे द्वारा लिखित विवरण को ही नियोगवशात् ग्रहण न करें। मेरे द्वारा बताया गया अर्थ ही सत्य और निर्दोष हो, यह तो यहां कहना सम्भव नहीं है। इसी प्रकार अन्तकृद्दशांग वृत्ति के अन्त में अभयदेवसूरि ने लिखा है:शब्दाः केचन नार्थतोऽत्र विदिताः केचित्तु पर्यायतः, सूत्रार्थानुगतेः समूह्य भणतो यज्जातमागः पदम् । वृत्तावत्र तकत् जिनेश्वरवचोभाषाविधौ कोविदः, संशोध्यं विहितादरैजिनमतोपेक्षा यतो. न क्षमा । अर्थात् कतिपय शब्दों के अर्थ एवं कतिपय शब्दों के पर्याय-पर्यायवाची शब्दों का ज्ञान न होने के कारण इस अन्तकृद्दशा वृत्ति में त्रुटियों का रहना स्वाभाविक है। जिनेश्वर की वाणी में निष्णात अादरणीय विद्वज्जन मेरी उन त्रुटियों का १. स्थानांग वृत्ति की प्रशस्ति अभयदेवकृत २. समवायांग वृत्ति का प्रारम्भिक भाग अभयदेवकृत ३. ज्ञाताधर्म कथांग वृत्ति प्रशस्ति अभयदेवकृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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