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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] अभयदेवसूरि [ १६१ श्रीवज्रादनुप्रवृतप्रकट मुनिपतिपृष्ठवृत्तानि तत्तद् ग्रन्थेभ्यः कानिचिच्च श्रुतधरमुखतः कानिचित् संकलय्य । दुष्प्रापत्वादमीषां विशकलिततयैकत्र चित्रावदातं जिज्ञासैकाग्रहाणामधिगतविधयेऽभ्युच्चयं स प्रतेने ।।१७।। इस श्लोक के माध्यम से यह प्रकट करने की आवश्यकता ही नहीं होती कि आर्य वज्र के पश्चाद्वर्ती कतिपय आचार्यों के ऐतिह्य को उन्होंने प्राचीन ग्रन्थों से, कतिपय के जीवन-वृत्त को श्रुतधरों के मुखारविन्द से संकलित किया है । वस्तुतः पूर्वाचार्यों का इतिवृत्त आज बड़ा दुष्प्राप्य, खण्डित-विखण्डित हो गया है अत: उसे एकत्र-संकलित कर लिखा है। इस सबके अतिरिक्त एक आश्चर्यकारी तथ्य यह है कि प्रभावक चरित्र में अभयदेवसूरि के जीवन चरित्र के सम्बन्ध में उल्लिखित विवरण को यदि तथ्य की कसौटी पर कसा जाय तो साम्प्रदायिक व्यामोह-विमुग्ध एवं पूर्वाग्रह-ग्रस्त अनेक लोगों को बड़ी निराशा होगी। उदाहरण के रूप में जैसा कि अभी-अभी बताया जा चुका है आचार्य अभयदेवसूरि ने नवांगी वृत्तियों की रचना अनहिल्लपुर पट्टण में की। इस प्रकार का उल्लेख स्वयं अभयदेवसूरि ने अपनी कतिपय वृत्तियों की प्रशस्तियों में किया है। इसके विपरीत प्रभावक चरित्रकार ने पल्यपद्रपुर में इन वृत्तियों की अभयदेवसूरि द्वारा रचना किये जाने का उल्लेख किया है । 'अभयदेवसूरिचरितम्' के श्लोक संख्या ६६ के अन्तिम श्लोकार्द्ध "यशोभिर्विहरन्प्राप पल्यपद्रपुरं शनैः" और श्लोक संख्या ११६ का अन्तिम श्लोकार्द्ध “प्रजानन्तश्च तन्मूल्यं श्रावका पत्तनं ययुः" स्पष्टतः इस बात को प्रकट करता है कि अभयदेवसूरि ने नवांगी वृत्तियों की रचना प्रण हिल्लपुर पट्टण में नहीं अपितु पल्यपद्रपुर में की। प्रभाचन्द्रसूरि की इस भूल से इस अनुमान को बल मिलता है कि शासनदेवी विषयक उनके द्वारा प्रस्तुत किया गया विवरण भी नवांगी वृत्तियों के रचनास्थल के समान अविश्वसनीय हो सकता है । सीमन्धर स्वामी से अपनी शंकाओं का निवारण करने में अभयदेवसूरि ने शासनदेवी की सहायता विषयक कोई उल्लेख अपनी वृत्तियों में नहीं किया है, इससे किसी भी विज्ञ द्वारा यही अनुमान किया जा सकता है कि अपनी शंकाओं के निवारण में देवी की सहायता नहीं प्राप्त हुई । इस अनुमान की पुष्टि अभयदेवसूरि द्वारा अपनी वृत्तियों की प्रशस्तियों में दिये गये निम्न लिखित पद्यों अथवा पद्यांशों से होती है : १. देखिये समवायांग, व्याख्या प्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्म कथांग और विपाक सूत्रों के अन्त में दी हुई प्रशस्तियां। -सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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