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. [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास- भाग ४
इन दोनों बड़े प्रश्नों को लेकर एक प्रकार की ऊहापोहात्मक स्थिति प्रत्येक व्यक्ति के अन्तर्मन में सहज ही उद्भूत हो सकती है कि शासन देवी के माध्यम से श्री अभयदेवसुरि ने अपने संशयों का निवारण सीमन्धर स्वामी से प्राप्त किया अथवा नहीं । साधारण से साधारण सहायक का अपनी प्रशस्तियों में स्मरण करने वाले कृतज्ञशिरोमणि अभयदेवसूरि सीमन्धर स्वामी और शासन देवता के प्रति आभार प्रकट करना कदापि नहीं भूल सकते । पर उन्होंने ऐसा नहीं किया, इससे कहीं ऐसा तो नहीं है कि शासनाधिष्ठायिका देवी द्वारा सीमन्धर स्वामी से अभयदेवसूरि की शंकाओं के निवारण के विवरणों की उपर्यु ल्लिखित ग्रन्थों के रचनाकारों की वर्णन शैली में अतिरंजना का पुट हो ।
इस प्रकार की ऊहापोहात्मक प्रश्न भरी संशयपूर्ण स्थिति का युक्तिसंगत समाधान या तो विज्ञ विचारक ही कर सकते हैं या कोई विशिष्ट तत्त्वज्ञानी ही।
जिनशासन के प्रति श्रद्धा भक्ति रखने वाले प्रत्येक स्वच्छ सरलमना व्यक्ति के मानस में उक्त दोनों ग्रन्थों के एतद्विषयक उल्लेखों को देखकर सहज ही यह प्रश्न तरंगित हो सकता है कि यदि इस प्रकार वीर निर्वाण की सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी के प्राचार्य अभयदेवसूरि द्वारा जिनशासन-अधिष्ठायिका देवी के माध्यम से महाविदेह में विहरमान सीमन्धर स्वामी से अपने संशयों का निवारण किया जा सकता है तो वीर निर्वाण की दूसरी शताब्दी में हुए अनुपम कामजयी प्राचार्य स्थूलिभद्र, वीर निर्वाण की छठी शताब्दी में हुए आर्य रक्षित, और वीर निर्वाण की तेरहवीं शताब्दी (१२२७ से १२६७ के बीच की अवधि) में हुए आचार्य हरिभद्र क्रमशः केवल दस पूर्वधर, पाठ पूर्वधर एवं दीमकों द्वारा खा ली गई महानिशीथ की प्रति के अपूर्णोद्धारक नहीं रह जाते ।
आचार्य प्रभाचन्द्रसूरि ने प्रभावक चरित्र में यह उल्लेख किया है कि शासन देवी की सहायता से अभयदेवसूरि ने नवांगों के पाठों के सम्बन्ध में अपनी सब शंकाओं का सीमन्धर स्वामी से समाधान प्राप्त कर नवांगों पर वृत्तियों की रचना की। देवी की सहायता से अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त करने वाले अभयदेवसूरि से केवल २०० वर्ष पश्चात् प्रभावक चरित्र की रचना करने वाले आचार्य प्रभाचन्द्र भी इतिहास सम्बन्धी अपनी उलझनों को देवी की सहायता से सुलझा सकते थे किन्तु प्राचार्य हेमचन्द्रसूरि के परिशिष्ट पर्व में उल्लिखित आचार्यों के चरित्र से आगे विक्रम सम्वत् ४३४ तक का जैनाचार्यों का क्रमबद्ध इतिहास लिखने के अपने संकल्प में वे सफल हो सके । वे केवल २३ प्राचार्यों का ही जीवनवृत्त लिख सके, जिनमें कतिपय प्राचार्य चैत्यवासी परम्परा के भी सम्मिलित हैं। स्वयं से २०० वर्ष पूर्व हुए अभयदेवसूरि की भांति वे भी यदि शासन देवता की सहायता प्राप्त कर लेते तो उन्हें :
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