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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] अभयदेवसूरि [ १५६ प्रभावक चरित्र के रचनाकार इतिहासमनीषि आचार्य प्रभाचन्द्र ने भी अपनी इस ऐतिहासिक कृति में यद्यपि द्रोणाचार्य का तो शोधकर्ता के रूप में नाम स्मरण नहीं किया है किन्तु : महाश्रुतधरैः शोधितासु तासु चिरन्तनैः । ऊरीचक्रे तदा श्राद्धैः पुस्तकानां च लेखनम् ।।११४।।' इस श्लोक के माध्यम से स्पष्ट रूपेण यह प्रकट किया है कि ज्ञानवयोवृद्ध श्रुतधर आचार्यों ने अभयदेवसूरि द्वारा रचित नवांगी वृत्तियों का संशोधन किया । इन सब उल्लेखों पर चिन्तन-मनन करने के अनन्तर दो प्रश्न प्रत्येक विज्ञ के अन्तर्मन में उत्पन्न होते हैं। पहला यह कि यदि अभयदेवसूरि ने इन नौ अंगों की वृत्तियों की रचना करते समय अपने सब संशयों का सीमन्धर स्वामी से शासन देवता को संशय निवारण का माध्यम बना अपने सब संशयों के समाधान प्राप्त कर लेने के पश्चात् इन नौ अंगों की वृत्तियों की रचना की होती तो श्री सीमन्धर स्वामी द्वारा किये गये स्पष्टीकरण के अनन्तर इन वृत्तियों का चैत्यवासी परम्परा के प्राचार्य श्री द्रोणसूरि से अथवा अन्य किसी श्रुतधर प्राचार्य से संशोधन करवाने की किसी भी सूरत में आवश्यकता क्यों हुई ? सर्वज्ञ सर्वदर्शी प्रभु सीमन्धर स्वामी द्वारा सभी प्रकार के संशयों का निवारण एवं स्पष्टीकरण कर दिये जाने के अनन्तर किसी भी प्राचार्य के द्वारा चाहे वह गणधर ही क्यों न हो, उन वृत्तियों के संशोधित करवाने का औचित्य किसी जड़मति की समझ में भी किंचित्मात्र भी युक्तिसंगत प्रतीत नहीं हो सकता । इसी प्रकार दूसरा एक बड़ा प्रश्न उपस्थित होता है कि शासन देवी ने अभयदेव के समक्ष उनके सभी संशयों का निवारण श्री सीमन्धर स्वामी से प्राप्त करवाने की प्रतिज्ञा की और उसने अपनी उस प्रतिज्ञा का पूर्ण रूपेण निष्ठापूर्वक निर्वहन किया। महाविदेह में विहरमान जगदैकबन्धु सीमन्धर स्वामी ने दया कर नव अंगों विषयक अभयदेवसूरि के सभी संशयों का निवारण कर हमारी इस आर्य धरा के सम्पूर्ण जैन संघ को चिरकाल तक के लिये उपकृत किया। ऐसी दशा में अभयदेवसूरि ने इन दोनों के प्रति कृतज्ञतापूर्वक आभार प्रकट क्यों नहीं किया ? साधारण सहायता करने वाले यशोदेवसूरि और चैत्यवासी प्राचार्य द्रोणाचार्य के प्रति अभयदेवसूरि द्वारा प्रकट किये गये आभार-पूर्ण उल्लेख को देखकर तो सीमन्धर स्वामी और शासनदेवी के प्रति अभरादेवसूरि द्वारा कृतज्ञता प्रकट करने का अभाव अन्तर्मन में त्रिशूल की तरह खटकता है, चुभता है । १. प्रभावक चरित्र, अभयदेवसूरि चरितम् श्लोक सं. ११४ पृष्ठ १६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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