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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] अभयदेवसूरि [ १६३ संशोधन कर लें क्योंकि जिनेश्वर द्वारा प्ररूपित मत की उपेक्षा करना कभी क्षम्य नहीं है।' विपाकवृत्ति की प्रशस्ति में भी अन्य वृत्तियों की भांति वृत्तिगत त्रुटियों को शुद्ध करने की निम्नलिखित श्लोक द्वारा प्रार्थना की है : इहानुयोगे यदयुक्तमुक्त, तद् धीधना द्राक् परिशोधयन्तु । नोपेक्षणं युक्तिमदत्र येन जिनागमे भक्तिपरायणानाम् ।। प्रभावक चरित्रकार और खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावलिकार के उल्लेखानुसार यदि ये वृत्तियां देवी की सहायता के माध्यम से सीमन्धर स्वामी से अभयदेवसूरि के संशयों के निवारण होने के पश्चात् लिखी जाती तो न तो वृत्तिकार को उत्सूत्र भाषण की, सिद्धान्तों से विपरीत व्याख्या करने की आशंका ही शेष रहती और न उन्हें विद्वज्जनों से इस प्रकार बार-बार क्षमा-याचना करने की ही आवश्यकता होती । जैनेतर अथवा पाश्चात्य विद्वान् इस सन्दर्भ में अपना कोई अभिमत व्यक्त करें, उससे पूर्व ही सम्भावित सभी तथ्यों को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। जिससे कि प्रत्येक जैन धर्मावलम्बी इस विषय पर तटस्थ भाव से विचार कर सके। अभयदेवसूरि के दादा गुरु वर्द्धमानसूरि द्वारा क्रियोद्धार करने, श्रमणजीवन में शिथिलाचार के विरुद्ध जन-जन के मन में नवचेतना जागृत करने तथा इनके गुरु जिनेश्वरसूरि द्वारा अणहिल्लपुर पट्टण में चैत्यवासी परम्पराओं से भिन्न जैन परम्पराओं के साधु साध्वी वर्ग पर प्रवेश विषयक लगी राजकीय निषेधाज्ञा को निरस्त करवाने के समय से ही प्राचार्य वर्द्धमानसूरि की, कालान्तर में खरतरगच्छ के नाम से विख्यात हुई परम्परा के साधुओं के साथ चैत्यवासी परम्परा के साधुओं का व्यवहार प्रायः कटुतापूर्ण चला आ रहा था, किन्तु अभयदेवसूरि की विनम्रता और उनके प्रागम विषयक तलस्पर्शी गहन ज्ञान के कारण चैत्यवासी परम्परा के प्रधानाचार्य भी उनका बड़ा सम्मान करते थे। इस सम्बन्ध में खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली का उल्लेख द्रष्टव्य है, जिसका सारांश इस प्रकार है : "अभयदेवसूरि जिस समय अणहिल्लपुर पट्टण करडिहट्टी नामक वसति में विराज रहे थे, उस समय उस नगर में चैत्यवासी परम्परा के प्रमुख आचार्य द्रोणाचार्य ने अंग शास्त्रों पर विवेचनात्मक व्याख्यान देना प्रारम्भ किया। पाटन में विद्यमान सभी प्राचार्य कपलिकाएं (सम्भवतः लकड़ी की तख्ती जिस पर पत्र रख कर व्याख्या के समय स्मरणीय आवश्यक अंश लिखे जाते हैं) लेकर अंगों की व्याख्या सुनने के लिये उपस्थित होते थे। १ अन्तकृद्दशावृत्ति प्रशस्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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