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________________ १५० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ हुए। शिथिलाचारपरायण चैत्यवासी परम्परा के वर्चस्व को सशक्त चुनौती देने वाले और श्रमण भगवान् महावीर के धर्मसंघ की विशुद्ध मूल परम्परा को पुनः प्रकाश में लाने वाले श्री वर्धमानसूरि के स्वर्गस्थ होने के अनन्तर श्री अभयदेवसूरि अपने गुरु के निर्देशानुसार विभिन्न क्षेत्रों में शुद्ध-मूल परम्परा का प्रचारप्रसार करते हुए विचरण करने लगे। अपने शिष्यों को प्रागमों की वाचना देते समय उन्होंने अनुभव किया कि एकादशांगी के प्रथम दो अंग प्राचारांग और सूत्रकृतांग-इन दो अंगों पर प्राचार्य शीलाक द्वारा रचित टीकाओं के उपलब्ध होने के कारण इन दोनों सूत्रों के गूढार्थ को हृदयंगम करने में आगमों के शिक्षार्थियों को अधिक कठिनाई का अनुभव नहीं होता। किन्तु शेष स्थानांग आदि नौ अंगों पर शीलाङ्काचार्य द्वारा निर्मित टीकात्रों के विलुप्त हो जाने के कारण उन अंगों के अध्येताओं को आगमों के अर्थ को समझने और गूढार्थ भरे अनेकार्थक सूत्रों को हृदयंगम करने में बड़ी कठिनाई होते देखकर प्राचार्य अभयदेवसूरि ने अन्तर्मन से अनुभव किया कि आगमों के अध्येताओं की सुविधा के लिये इस कठिनाई को दूर करना परमावश्यक है, अतः उन्होंने इस गुरुतर कार्य को सम्पन्न करने का मन ही मन संकल्प किया। प्रभावक चरित्रकार प्रभाचन्द्राचार्य के उल्लेखानुसार उपाश्रय में रात्रि के समय जिनशासन की अधिष्ठात्री देवी ने अभयदेवसूरि के समक्ष उपस्थित हो नमनानन्तर निवेदन किया-"पूर्वकाल में कोट्याचार्य के नाम से प्रख्यात शीलाङ्काचार्य ने ग्यारहों अंगों की वृत्तियों की रचना की थी, उनमें से प्राचारांग और सूत्रकृताङ्ग इन दो सूत्रों की ही वृत्तियां साम्प्रतकाल में उपलब्ध हैं । शेष ह अंगों की टीकाएं कालप्रभाव से विलुप्त हो गई हैं। जैन संघ पर कृपा कर आप स्थानांगादि शेष नौ अंगों पर वृत्तियों की रचना करने का प्रयास करें।" शासनाधिष्ठात्री देवी की बात सुनकर अभयदेव ने उत्तर देते हुए कहा :-- सर्वज्ञ सर्वदर्शी श्रमण भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट और मति, श्रुति, अवधि एवं मन: पर्यव इस प्रकार चार विशिष्ट ज्ञान के धनी प्रार्य सुधर्मा द्वारा ग्रथित गूढार्थ भरे आगमों के रहस्यभरे अनेकार्थपूर्ण शब्दों की व्याख्या करने में मेरे जैसा अल्पज्ञ क्या सफल हो सकेगा? अापके आदेश की अवहेलना तो मैं नहीं कर सकता किन्तु मुझे एक ही भय है कि अपनी अल्प मति के कारण यदि मेरे द्वारा गूढार्थ भरे एक भी शब्द की सर्वज्ञप्रणीत आगम की मूल भावना के विपरीत व्याख्या हो गई तो मैं अनन्तकाल तक भयावहा भवाटवी में भटकने का अधिकारी एवं अनन्त दुःसह्य दारुण दुःखों का भागी बन जाऊंगा।" इस पर शासनदेवी ने अभयदेवसूरि को आश्वस्त करते हुए कहा-"महामनीषिन् ! आगमों की टीका करने में सुयोग्य समझ कर ही तो मैंने नवांगों पर वृत्ति निर्माण की आपसे प्रार्थना की है । वृत्तियों की रचना करते समय कहीं पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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